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खेन कला : २७१
वस्तुतः जैन शैली ने मुगल शैली के साथ संयुक्त होकर, १६वीं शताब्दी के पश्चात् राजस्थान की विविध चित्र शैलियों को जन्म दिया। अतः इस शैली की महत्ता आने वाली चित्रकला की भूमि तैयार करने में रही। राजस्थानी चित्रकला निश्चय ही “जैन शैली' की देन है।
गजस्थान की जैन चित्रकला के अपने मौलिक रूप रहे हैं, जो भित्ति चित्रों एवं लघु चित्रशैली के विविध रूपांकनों, यथा सचित्र ताड़पत्रीय एवं कागज ग्रन्थ, सचित्र वस्त्र पट्ट, सचित्र विज्ञप्ति लेख, काष्ठचित्र एवं विभिन्न चित्र शृंखलाओं के रूप में देखने को मिलते हैं, जिनसे तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन प्रकाश में आता है, तथा वातावरण, वेशभूषा आदि की भी परोक्ष रूप से जानकारी प्राप्त होती है । (१) पूर्व मध्यकाल : (क) भित्ति चित्र :
पूर्व मध्यकाल में भित्ति चित्रों का निर्माण होता था, किन्तु भित्तियों का लेप और उस पर कलाकार के हाथों से निर्मित रेखाएँ तथा रंगों का विन्यास कालिक प्रभाव एवं धूप, वर्षा, पवन आदि प्राकृतिक शक्तियों की करालता को अधिक नहीं सह सकती। अतः इस काल के भित्ति चित्रों के उदाहरण राजस्थान में उपलब्ध नहीं होते, किन्तु भित्ति चित्रों के निर्माण के बाद से ही जैन चित्रकला की शैली अस्तित्व में आई। (ख) लघु चित्रशैली : (ख-१) सचित्र ताड़पत्रीय ग्रंथ :
राजस्थान की जैन चित्रकला का प्रारम्भ ताड़पत्रीय ग्रन्थों से माना जा सकता है, जो सर्वाधिक, जैसलमेर के जिनभद्र सूरि ज्ञान भण्डार में उपलब्ध हैं । “दशवैकालिकसूत्रर्णि" एवं 'ओघनियुक्ति' (१०६० ई०), जिन्हें नागपाल के वंशज आनन्द ने पाडिल नामक कवि से प्रतिलिपि कराया था, प्राचीनतम चित्रित ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों में लक्ष्मी, इन्द्र, हाथी आदि की आकृतियाँ कलामय एवं दर्शनीय हैं। चौहानकालीन "पंचाशक प्रकरण वृत्ति' (११५० ई०), "उपदेश प्रकरण वृत्ति" (११५५ ई०), "कवि रहस्य' (११५९ ई०), "दशवकालिकसूत्र' आदि हैं, जिनका चित्रण पाली और अजमेर में हुआ था, जैसलमेर ज्ञान भण्डार में संग्रहीत हैं। १. चोयल, जैसरा, पृ० २०९ । २. वाचस्पति गेरोला-भारतीय चित्रकला का संक्षिप्त इतिहास, पृ० ४१ । ३. पुण्यविजय-केटेलांग ऑफ प्राकृत एण्ड संस्कृत मेनु० जैसलमेर, अहमदाबाद १९७२,
पृ० २८। ४. वही, पृ० १४१ ।
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