SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : ९३ राजस्थान में उक्त सभी भेद प्रचलन में नहीं थे । मूल संघ के अस्तित्व का राज - स्थान में प्रथम अभिलेख ११वीं शताब्दी का मिलता है, किन्तु इससे पूर्व भी यह अस्तित्व में था । बाद में यह "सरस्वती" शब्द द्वारा पृथक् से जाना जाने लगा, जो संभवतः १४वीं शताब्दी में हुआ होगा, जबकि पद्मनन्दी ने सरस्वती की प्रस्तर प्रतिमा को बुलवाने का चमत्कार दिखाया था । 2 बेंतेड़ में विमलनाथ मन्दिर की पार्श्वनाथ एकतीर्थी पर अंकित ११७७ ई० के लेख में मूल संघ का उल्लेख है । 3 अजमेर म्यूजियम में रखी सरस्वती मूर्ति के ११९७ ई० के लेख में भी केवल मूल संघ का उल्लेख है २. माथुर संघ : - इसे काष्ठा संघ का माथुर गच्छ भी बताया जाता है । " किन्तु राजस्थान से प्राप्त कुछ अभिलेखों में '' माथुर संघ" का उल्लेख है । संभवतः पश्चात् - वर्ती काल में यह संघ काष्ठा संघ में मिलकर उसका एक अन्वय या गच्छ बन गया । "दर्शन - सार" के अनुसार माथुर संघ एक धर्मं विरोधी संघ था, जो काष्ठा संघ की स्थापना के २०० वर्ष बाद, ८९६ ई० में अस्तित्व में आया । यह संघ आचार्य रामसेन के द्वारा स्थापित किया गया था। इस संघ का नामकरण " मथुरा" नगर के नाम पर हुआ । ७ के० सी ० जैन ने इसे मदुरा ( दक्षिण ) से उत्पन्न बताया है, जो सही प्रतीत नहीं होता ।" इस संघ की मान्यतानुसार पिच्छी रखना आवश्यक नहीं होता । I राजस्थान में ११वी व १२वीं शताब्दियों में माथुर संघ दिगम्बर सम्प्रदाय में बहुत लोकप्रिय था । इस काल में इस संघ के आचार्यों द्वारा विभिन्न स्थानों पर मूर्तियाँ स्थापित करवाई गईं । बघेरा के जैन मन्दिर में ब्रह्माणी की प्रस्तर प्रतिमा के ११५८ ई० के लेख में माथुर संघ के पण्डित महासेन का उल्लेख है । वर्तमान में सांगानेर में सिन्धी जी के मन्दिर में प्रतिष्ठित एक श्वेत प्रस्तर प्रतिमा के ११६७ ई० के लेख में इस संघ के यशकीर्ति का नामोल्लेख है । इसी प्रकार ११७५ ई० की माथुर संघ के उल्लेख १. जैशिस, क्र० २०८ । २. जबाबा राएसो, सं० ४४, भाग, १७, पृ० १६३ एवं पीटरसन रिपोर्ट १८८३-८४ ३. प्रलेस, क्र० ३७ । ४. वही, क्र० ४५ । ५. जैसेस्कू, पृ० ११२; नाजैलेस, १, क्र० १४५, ३२६-३२७, ३३६ । ६. दर्शनसार, पृ० १७ । ७. जैसस्कू, पृ० ११२ । ८. जैइरा, पृ० ७० । ९. एरिराम्यूअ, १९१९-२०, क्र० ४ । १०. वीरवाणी, ५, पृ० ४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy