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१२२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
मिलता है।' १६२६ ई० के ओसिया अभिलेख में भी इसका नाम है ।
२. वृहत्तपागच्छ-इस गच्छ का उल्लेख १६०८ ई० में सिरोही राज्य में लुआणा, १७०० ई० में थराद, १७७६ ई० में जेतड़ा और १७८० ई० के भीलड़िया तीर्थ की प्रतिमाओं के लेखों में है।
३. अंचल गच्छ--अंचल गच्छ का नामोल्लेख १६०६ ई० के ३ मूर्ति लेखों में उपलब्ध हुआ है, जो सवाई माधोपुर, जयपुर और अजमेर नगरों में प्राप्त
हुआ है।
४. खरतर गच्छ--राजस्थान के सर्वाधिक लोकप्रिय, इस गच्छ का उल्लेख १६०३ ई० से १६१२ ई० तक के ३ मूर्ति लेखों में भी दृष्टिगत होता है ।
५. धर्मघोष गच्छ--इस गच्छ का उल्लेख उत्तरवर्ती काल में मालपुरा में मुनि सुव्रत प्रतिमा पर १६३४ ई० के मूर्ति लेख में है।
६. नागोरी तपागच्छ--हिण्डोन में श्रेयांसनाथ मन्दिर में मूलनायक प्रतिमा के १६१० ई० के लेख में इस गच्छ के चन्द्रकीति सूरि का उल्लेख है।'
७. विजय गच्छ- लोंका गच्छ से पृथक् होकर विजय मुनि ने बोजा मत स्थापित किया । उन्हीं के नाम पर विजय गच्छ प्रसिद्ध हुआ। इन्होंने कालान्तर में मूर्ति पूजा पुनः स्वीकार कर ली थी। इस गच्छ के आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित ३ मूर्तियाँ १६१० ई० की तथा एक १६२७ ई० की वजीरपुर, बामणवास, हिण्डोन आदि क्षेत्रों में मिलती हैं। इसके अतिरिक्त सिरोही राज्य के भारज से प्राप्त १६४२ ई० के लेख और बालोतरा से १६६१ ई० के मूर्ति लेख में भी इसका उल्लेख है ।१०।।
८. वेगड़ शाखा--खरतर गच्छ की १३६५ ई० में धर्म बल्लभ गणी द्वारा स्थापित
१. श्री जैप्रलेस, क्र० २६५, १०९, १०८, २२३ एवं प्रलेस, क्र० ११६३, ११६४ ॥ २. जैइरा, पृ० ६२ । ३. श्री जैप्रलेस, क्र. ३६६, ४१, ३७०, ३७१, ३३६, ३३७ । ४. प्रलेस, क्र० १०८२, ११००-११०२। ५. प्रलेस, क्र० ११५०-११५५, ११६१, ११९६ । ६. वही, क्र० ११८७ । ७. वही, क्र० १०९२ । ८. वही, क्र० १०८९-१०९१, ११६८ । ९. नाजलेस, क्र० ७३८ । १०. वही।
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