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जैनधर्म भेद और उपभेद : १२१
मुसलमान शिष्य था । बाह्य सज्जा और दिखावट के स्थान पर ये आत्मिक उन्नयन को महत्त्व देते हैं । मुसलमानों के विध्वंस से त्रस्त होकर प्रतिक्रिया स्वरूप यह पंथ उत्पन्न हुआ । राजस्थान में इसका बहुत कम प्रचार रहा ।
२. बोसपंथी वर्ग-इस पंथ के अस्तित्व में आने का उल्लेख १३वीं शताब्दी में मिलता है। किन्तु यह मत सत्य प्रतीत नहीं होता। सम्भवतः इस मत को उत्पत्ति तारण पंथ के प्रचार-प्रसार के समय भट्टारकों का विरोध होते समय, भट्टारक समर्थक लोगों ने की होगी । ग्लासनेप का अभिमत है कि बसन्त कीर्ति ने, एक वस्त्र से मुनियों के चर्यार्थ जाते समय आच्छादन का जो प्रावधान स्थापित किया था, उसको मानने वाले "विश्वपंथी' या 'बोसपंथी" कहलाने लगे। यह पंथ भट्टारकों के नेतृत्व में रहता है। ये भैरव आदि क्षेत्रपालों सहित तीर्थंकरों की मूर्तियाँ स्थापित करवाते हैं। ये प्रतिमाओं का पूजन फल, फूल, जल, दीप, चंदन आदि से करते हैं । बुहलर का मत है कि इस पंथ के भट्टारक भोजन करते समय पूर्णतः नग्न रहते हैं और उस समय उनका एक शिष्य घंटी बजाता रहता है, ताकि सामान्य जन वहाँ से दूर रहें । इस पंथ के अनुयायी मुख्यतः जयपुर, अजमेर, नागौर और मारोठ में पाये जाते हैं ।
३. विधि मार्ग--बीसपंथी भट्टारकों के आचरण की प्रतिक्रिया स्वरूप एक नया वर्ग-विधि मार्ग अस्तित्व में आया । कुछ विद्वान् इसे तेरापंथ की संज्ञा से अभिहित करते हैं, जो उचित प्रतीत नहीं होता। वस्तुतः तेरापंथ १७वीं शताब्दी में अस्तित्व में आया। इससे पूर्व यह सुविहित विधि मार्ग ही, १५२८ ई० से प्रचलन में रहा । इस पंथ का उद्देश्य आध्यात्मिक उन्नयन तथा बीसपंथी भट्टारकों की गतिविधियों का विरोध करना था। ये मूर्ति पूजक हैं, किन्तु तीर्थङ्कर मूर्तियों के अलावा क्षेत्रपाल की मूर्ति स्थापित नहीं करते । (३) उत्तर मध्यकाल : (क) श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भेद-प्रभेद : (क-१) प्रवर्तमान गच्छ :
१. कडुआमति गच्छ-यह गच्छ कडुआशाह द्वारा १५वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्थापित किया गया था। इस गच्छ का उल्लेख सिरोही राज्य में थराद के जैन मन्दिरों में १६०४ ई०, १६२६ ई०, १६५१ ई० और १७२८ ई० के मूर्ति लेखों में
१. जैसेस्कू, पृ० १३७ । २. इए, ७, पृ० २८॥ ३. जैसेस्कू, पृ० १३७ ।
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