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जैन कला : ३२१ में पुननिर्मित करवाया गया।' १८वीं शताब्दी में मन्दिर कला ह्रासोन्मुख हुई एवं आधनिक स्थापत्य की विशेषतायें इसमें प्रकट हुईं । उत्तर मध्य काल में निर्मित मन्दिर लाक्षणिक दृष्टि से प्राचीन ढंग के ही होते थे, इनके गुम्बद, शिखर, स्तम्भ व अलंकरण की विषय सामग्री पुरातन ही थी । शैली एवं अलंकरण भी भव्य एवं समृद्ध हैं, तथापि इनमें मौलिक पवित्रता एवं सादगी का अभाव है। कहीं-कहीं पर अत्यधिक आधुनिकता, भद्दा रंग संयोजन आदि ने जैन मन्दिरों के स्वरूप को कुछ विकृत सा बना दिया है । (द) जैन रूपप्रद कला : ___ अत्यधिक पुराने मन्दिरों के अस्तित्व में न होने के कारण उनके रूपांकन की बारीकियों का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। बहुत से मन्दिरों में जीर्णोद्धार के कारण कुछ कला प्रतीकों को क्षति पहुंची है। विद्यमान तक्षण वैभव के आधार पर रूपप्रद कला ३ स्वरूपों में दृष्टव्य है(१) सज्जांकन :
सजावट के विविध तक्षण प्ररूपों में लिपटे हुये कागज के बंडल जैसी आकृतियाँ, पशु आकृतियाँ, पत्र, पुष्प, वृक्ष एवं यत्र-तत्र मानवाकृतियाँ सम्मिलित हैं। यह कुराई सामान्यतः दरवाजों, स्तम्भों और वितान सज्जा के लिये प्रयुक्त होती थी। आबू में विमलवसहि के मन्दिर के एक वितान में कल्पवृक्ष का बहुत सुन्दर तक्षण है। मीरपुर में मन्दिर का तक्षण वैभव भी अनुपम है । जैन कला के इस पहलू में अपना कोई निजत्व नहीं है, क्योंकि ये ही शिल्पी अन्य धर्मों के मन्दिर आदि भी बनाते थे। अतः ऐसो कला के प्रतिमान अन्यत्र भी हैं । (२) तक्षित प्रतिमाएँ :
राजस्थान के जैन मन्दिरों में कई तराशी गई प्रतिमाएँ भी हैं । मारवाड़ में घटियाला के मन्दिर के एक ताक में, बाँयें पाश्व में अभिलेख तथा दाँयें पार्श्व में सिंहारूढ़, बारीक तक्षण की उत्कृष्ट प्राचीन प्रतिमा है । इस देवी के आधार पर ही इस ताक को "माताजी का साल" कहते हैं। अभिलेख के अनुसार यह मन्दिर "जिन" को समर्पित है । अतः यह जैन देवी अम्बिका प्रतीत होती है। प्रतिमा केवल सज्जा के लिये है, इसका पूजन नहीं होता।
सिरोही राज्य में वरमाण के महावीर मन्दिर में बारीक तराशी हुई एक कुबेर की प्रतिमा है। इसो मन्दिर में सभा मण्डप के पूर्व के बरामदे के वितान पर एक कुराई की गई चित्र पंक्ति है, जिसमें केन्द्रीय आकृति गज लक्ष्मी है, जिस पर हाथी जल १. विस्तार के लिये अध्याय चतुर्थ देखें। २. प्रोरिआसवेस, १९०६-०७, पृ० ३४ ।
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