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३२२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
मारोठ में गोधा व चौधरियों के मन्दिर १४वीं व १५वीं शताब्दियों के हैं । इनकी आन्तरिक सज्जा व स्तम्भ दर्शनीय हैं। बीकानेर के भांडासर मन्दिर का गर्भगृह गोलाकार है, जिसके ऊपर दो मंजिलें हैं और प्रत्येक मंजिल ४ खुली बालकनियों में खुलती है, जो आपस में सँकरी सीढ़ियों से जुड़ी हुई हैं । यह मन्दिर जैसलमेर के पीले पत्थर का बना हुआ है तथा राजपूत व मुगल स्थापत्य का सुन्दर सम्मिश्रण है । बीकानेर का चिन्तामणि मन्दिर स्थापत्य की दृष्टि से और भी उत्कृष्ट है । राव बीका के काल में १५०३ ई० में पीत प्रस्तर से निर्मित गर्भगृह, सभा मण्डप, खुला बरामदा व अन्य कई बरामदे बने हुए हैं । मन्दिर की संरचना, स्तम्भ, स्तम्भों के शिखर, गुम्बद, वितान आदि गुजराती मन्दिरों की नकल दिखते हैं । जबकि फूल-पत्तियों के अलंकरण, हस्तिपंक्तियाँ आदि उस तथ्य की द्योतक हैं, जिसकी उत्पत्ति मध्यकाल में हुई थी । इस मन्दिर के तलगृह में सिरोही से लूटी गई व अकबर से पुनर्प्राप्त १०५० प्रतिमाएँ हैं । बीकानेर का ही नेमिनाथ मन्दिर सुन्दर स्थापत्य का निदर्शन है । इसका शिखर आठ सुन्दर मालाओं से सुसज्जित है । गर्भगृह का प्रवेश-द्वार तक्षण युक्त है । अलंकरण में विविध बिम्ब यथा - लताएँ, चक्र, सितारे, पुष्प, मानवाकृतियों आदि का प्रयोग किया गया है ।
इस प्रकार मध्यकालीन मन्दिर शैली में चतुर्मुख शैली, समवसरण शैली आदि विकसित हुई । राजनैतिक व सामाजिक प्रभाव, मुख्यतः मुस्लिम आक्रमणों की आशंका के कारण, कहीं-कहीं मन्दिर के आसपास दुर्गनुमा दीवार भी देखने को मिलती है । सिरोही के माण्डवाडा, मेर व सणपुर के जैन मन्दिरों के द्वार की श्रृंगार चौकियां तो रक्षा चौकियाँ ही बना दी गई थीं, जहाँ से युद्ध के समय मोर्चे सँभाले जा सकते थे । अतः इस काल में मन्दिरों की दुर्ग शैली अस्तित्व में आई ।
(३) उत्तर मध्यकाल :
१७वीं शताब्दी में भी मुगल आक्रमण एवं विध्वंस का खतरा बराबर बना रहता था । अतः सुरक्षा की नयी स्थापत्य शैली के रूप में भूमिगत मन्दिर भी अस्तित्व में आये । कोटा राज्य में खानपुर के निकट चांदखेड़ी का १६८९ ई० में निर्मित मन्दिर, न केवल दुर्गनुमा है, अपितु इसमें मूल गर्भगृह ही भूमिगत है, जो आकार एवं विस्तार में ऊपर वाले गर्भगृह के समान ही विस्तार वाला है । ऊपर भी मूर्तियाँ हैं, किन्तु शास्त्रोक्त प्रतिष्ठा भूमिगत गर्भगृह की मूर्तियों की ही है । "
इस प्रकार के भूमिगत कक्ष अनेक जैन मन्दिरों में विभिन्न स्थानों पर देखने को मिलते हैं । केशोरायपाटन का मुनि सुव्रतनाथ मन्दिर भी सम्भवतः इसी काल में भोयरें
१. कोटा राज्य का इतिहास, पृ० २१९ ।
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