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________________ १०८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म के आचार्यत्व में देवभद्र ने “कातंत्रव्याकरण" की प्रतिलिपि १५३१ ई० में तैयार की थी। १०१. कासहद गच्छ-कासिंद्रा से उत्पन्न इस गच्छ का उल्लेख इसी गांव के जैन मन्दिर के १२४२ ई० के लेखों में है। (क-२) नवीन सम्प्रदाय व पन्थ : १. लोंका संप्रदाय-मुस्लिम आक्रमणों के प्रभाव से १५वीं-१६वीं शताब्दी वैचारिक क्रान्तियों का युग रही । जैनधर्म में इसके परिणामस्वरूप विभिन्न जैन पंथ, आत्म सुरक्षा हेतु परस्पर निकट आये । साथ ही कुछ लोग मूर्ति पूजा से बिल्कुल पृथक हो गये। अमूर्तिपूजक वर्ग मूर्ति पूजा की कटुतापूर्वक आलोचना करने लगे। लोकाशाह सिरोही जिले के अरठवाड़ा ग्राम के निवासी थे, जो अहमदाबाद में यति ज्ञानजी के उपाश्रय में प्रतिलिपि लेखन कार्य से जीविकोपार्जन करते थे । प्रतिलिपि-करण के दौरान इन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि शास्त्रों में मूर्ति पूजा का कहीं वर्णन नहीं था। इन्होंने यह तथ्य ज्ञानजी व अन्य विद्वानों के समक्ष रखा। इससे मूर्ति पूजा के औचित्य के सम्बन्ध में तीखा विवाद पैदा हो गया। अन्ततोगत्वा १४५१ ई० में लोकाशाह ने अपने ही नाम पर एक पृथक् वर्ग या पंथ संगठित कर लिया। इन्होंने न केवल प्रतिमाओं की स्थापना व पूजन का निषेध किया, अपितु पौषध, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि के प्रति भी अविश्वास घोषित किया। हिंसा या परपीड़न से सम्बन्धित सभी धार्मिक संस्कारों का इन्होंने कड़ा विरोध किया। चूंकि इस काल में मुसलमान मन्दिरों एवं प्रतिमाओं का विध्वंस कर रहे थे, अतः इन्हें अपनी विचारधारा और सिद्धान्तों के प्रचार का सुअवसर मिला । जैन भिक्षुओं में भी शिथिलता व तात्त्विक विकार पैदा हो गये थे तथा वे पुस्तके, वस्त्र व धन का परिग्रह करने लग गये थे। उनकी आपसी कलह से जन सामान्य भी उनका आलोचक हो गया था । लोकाशाह ने इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर विभिन्न स्थानों का भ्रमण करके अपना सैद्धांतिक अभियान युद्ध स्तर पर चलाये रखा। लोकाशाह ने अपना सैद्धान्तिक आधार ३१ सूत्रों या शास्त्रों को घोषित किया और इनकी नयी शास्त्र सम्मत व्याख्यायें दी, जो मूर्तिपूजा विरोधी थीं। इन्होंने "आवश्यक सूत्र" की भिन्न व्याख्यायें देकर उसका स्वरूप ही पूर्णतः बदल दिया । १४७६ ई० में सिरोही के निकट "आरा-घट-पाटक" के निवासी भाण से मिलने पर, उसे स्वयं अदी'क्षित होते हुए भी दीक्षा दिला दी । भाण ने अपना नाम धंधक रख लिया और १५११ १. जैरा, पृ० १९४ । २. अप्रजैलेस-कासिंद्रा ग्रामस्य लेख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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