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________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १०९. ई० में इन्हें रूपक नामक शिष्य तथा १५३० ई० में वरसिंह नामक शिष्य भी मिल गये। पट्टावलियों के प्रमाणों से ज्ञात होता है कि सात पाट पश्चात् लोंका गच्छ के दो मुख्य भेद-गुजराती और नागौरी लोंका हुए । नागौरी लोंकागच्छ १५२३ ई० में हीरागर और रूपचन्द से प्रकट हुआ । गुजराती लोंकागच्छ की भी नानीपक्ष, मोटी पक्ष और लाहोरी लोंका गच्छ, तीन शाखायें बनीं । इस प्रकार लोंका गच्छ के अनुयायी १६वीं शताब्दी के अन्त तक अत्यधिक संख्या में हो गये। २. बीजामत या विजयगच्छ-१५१३ ई० में लोंकागच्छ के अनुयायी मुनि बीजा ने एक पृथक् गच्छ विजय गच्छ के नाम से स्थापित कर लिया। पहले यह बीजा मत के नाम से प्रसिद्ध था। इन्होंने मूर्ति पूजा को पुनः स्वीकार कर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना लिया। यहाँ तक कि अपनी पट्टावलो में लोंकाशाह का उल्लेख तक नहीं किया। ३. कडुआ मत--कडुआ शाह नाडलाई में १४३८ ई० में पैदा हुआ था। पहले वह नागर जाति का था किन्तु बाद में जैन हो गया और अंचल गच्छ का अनुयायी बना। १४६७ ई० में वह अहमदाबाद गया, जहाँ लोकाशाह के विचारों से प्रभावित होकर उसकी बौद्धिक तृष्णा जाग्रत हुई । वहाँ वह आगमिक गच्छ के पन्यास हरिकीर्ति से भी मिला और उनसे आगमों का अध्ययन करने के बाद उसको दीक्षा लेने की प्रेरणा हुई। हरिकीति ने उसे बताया कि इस युग में शास्त्र सम्मत आचरण करने वाले गुरु बिरले ही है । अतः शास्त्रीय दीक्षा सम्भव नहीं हो सकती । इस तथ्य को जानकर उसने अपना पृथक् मत स्थापित कर लिया, जिसका मूल उद्देश्य यही प्रचारित करना था कि साधुओं की संस्था व्यर्थ है, क्योंकि कोई सच्चा साधु नहीं है। उन्होंने गृहस्थों का पक्ष लिया और इस प्रकार “कडुआ मत" की स्थापना की। यह मत मूर्ति पूजा विरोधी नहीं है। राजस्थान के भी कुछ क्षेत्रों में कडुआ मत का प्रभाव रहा। कडुआ शाह ने अपने कई अनुयायी बनाये, जिनमें से अधिकांश गुजरात के थे । उसने १४६६ ई० में इस पंथ को स्थापित कर ४० वर्षों तक इसका प्रचार किया। १५०७ ई० में इनकी मुत्यु के बाद, इनके उत्तराधिकारी क्रमशः खेमाशाह, वीरशाह, शाहजीव राज, तेजपाल, शाह रत्नपाल जिनदास और शाह तेजपाल द्वितीय, १६वीं शताब्दी की समाप्ति तक हुए। १. पप्रस-भूमिका। २. वही, भूमिका, पृ० ३४ । ३. जैसेस्कू, पृ० ७८ । ४. वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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