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________________ नागौर शाखा के उत्तर मध्यकालीन भट्टारक 9: १. यशकीर्ति १६१५ ई० २. भानुकीर्ति १६३३ ई० ३. भूषण १६४८ ई० ४. धर्मचन्द्र १६५५ ई० ५. देवेन्द्रकीर्ति १६७० ६. सुरेन्द्र कीर्ति १६८१ ई० ७. रत्नकीर्ति १६८८ ई० । ई० अजमेर पट्ट के उत्तर मध्यकालीन भट्टारक' : १. रत्नकीर्ति १. विद्यानन्द १७०९ ई० ३. अनन्तकीर्ति १७१६ ई० ५. भवन भूषण १७४० ई० ७. ज्ञान भूषण ८. चन्द्र कीर्ति ९. पद्मकीर्ति १०. पद्मनन्दी दिल्ली जयपुर शाखा के उत्तर मध्यकालीन भट्टारक : १. जैसे स्कू, पृ० १०० ॥ २. वही, पृ० १०१ । ३. वही, पृ० ९८ । ४. प्रलेस, क्र० १०२७, १०७३ । जनधर्मं भेद और उपभेद : १२७ १. देवेन्द्रकीर्ति १६०६ ई० २. नरेन्द्रकीर्ति १६३४ ई० ३. सुरेन्द्रकी र्ति १६६५ ई० ४. जगत्कीर्ति १६७६ ई० ५. देवेन्द्र कीर्ति द्वितीय १७१३ ई० ६. महेन्द्रकीर्ति १७३३ ई० ७. क्षेमेन्द्रकीर्ति १७५८ ई० ८. सुरेन्द्रकीर्ति द्वितीय १७६५ ई० सुखेन्द्र कीर्ति १७९५ ई० । जयपुर के सुमतिनाथ मन्दिर में पार्श्वनाथ की दो प्रतिमाएँ हैं, जिन पर १६०१ के लेख हैं । पहली प्रतिमा पर केवल मूल संघ व दूसरी पर मूल संघ के भट्टारक चन्द्रकीर्ति का उल्लेख है ।४ १६०४ ई० में हंस ने अपनी पत्नी व पुत्र के साथ षोडष- कारण यन्त्र की स्थापना करवाई ।" मूल संघ के पद्मनन्दी द्वितीय के उपदेश से रतना ने प्रतिष्ठा समारोह आयोजित करवाया था । १६३९ ई० में क्षेमकीर्ति के उपदेश से - मूल संघ के श्रावकों ने शांतिनाथ की प्रतिमा बनवाई । १६०३ ई० में साह जूटा ̈ और साह जुंगा' ने चन्द्रकीर्ति के द्वारा घातु प्रतिमा की प्रतिष्ठा और षोडषकारण यन्त्र की स्थापना पृथक्-पृथक् करवाई । १६०१ ई० में अजमेर के बोहित ने अपने पुत्र और पोतों के साथ चौबीसी स्थापित की । १६०४ ई० में आसानाथ ने चन्द्रकीर्ति से ॠणकार ५. जैइरा, पृ० ७७ । ६. अने, १३, पृ० १२७ ॥ ७. जैइरा, पृ० ८१ । ८. वही, पृ० ८२ । ९. वही, पृ० ८२ । Jain Education International महेन्द्रकी र्ति १७१२ ई० ४. ६. विजयकीर्ति १७४५ ई० ११. सकल भूषण । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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