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४६२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
जलवायु वाले प्रदेशों में ही रहीं। इन पृथक्-पृथक् प्रभाव क्षेत्रों के कारणस्वरूप दो तर्क दिये जा सकते हैं :
१. पश्चिमी राजस्थान श्वेताम्बर सम्प्रदाय का गढ़ रहा, अतः उन्होंने दिगम्बर आचार्यों को इधर पैर नहीं जमाने दिया ।
२. किन्हीं कारणों से दिगम्बर आचार्यों ने ही उस प्रदेश में जाना उचित नहीं समझा।
प्रथम तक को इस आधार पर अस्वीकृत किया जा सकता है कि जैनधर्म में सदैव सहिष्णुता की भावना रहो है, चाहे अन्य धर्मों के संदर्भ में हो या धर्म के आन्तरिक पंथों के संदर्भ में । अतः श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा किसी प्रतिरोध की सम्भावना की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह सम्भावना इस आधार पर भी अमान्य हो जाती है कि दिगम्बर प्रभाव यद्यपि पश्चिमी राजस्थान में नहीं बढ़ पाया किन्तु श्वेताम्बर प्रभाव तो पूर्वी व दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में भी निरन्तर ही निविरोध बना रहा, अतः अंतर्साम्प्रदायिक संघर्ष का प्रश्न ही नहीं उठता।
द्वितीय सम्भावना ही अधिक उचित प्रतीत होती है। पश्चिमी राजस्थान की जलवायु की विषमताओं, जल साधनों की न्यूनता आदि के कारण दिगम्बर आचार्यों ने उधर अधिक जाना उचित नहीं समझा होगा। दोनों सम्प्रदायों के जैनाचार्यों का निरपेक्ष दृष्टि से आचारिक अध्ययन करने पर स्पष्ट है कि दिगम्बर आचार्यों का जीवन अपेक्षाकृत अधिक मान्यताओं में बँधा हुआ व कठोर है। सर्वथा दिगम्बर रह कर दिन में तीन गर्मी व रात्रि में कठोर शीत के वैषम्य को निरन्तर सहन करना दुष्कर है। दिगम्बर आचार्यों के चर्या नियम अधिक कठोर होने के कारण उनका निर्वाह इस प्रविकीर्ण आबादी वाले प्रदेश में होना भी कठिन ही था, अतः दिगम्बर आचार्यों ने इधर जाना उचित नहीं समझा होगा।
पूर्वोक्त दोनों प्रभाव क्षेत्रों के लगभग मध्य में चित्तौड़ ( मेवाड़ ) की स्थिति है, जो भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण जैनधर्म के प्रसार की दृष्टि से भी स्वयमेव महत्त्वपूर्ण हो गई। दक्षिण से मालवा व गुजरात होकर उत्तरी भारत के सांस्कृतिक हृदयस्थल दिल्ली तक पहुँचने का एक महत्त्वपूर्ण मार्ग चित्तौड़ ( मेवाड़) होकर ही था अतः दक्षिण की तरफ गुजरात व मालवा से राजस्थान में सम्पर्क का केन्द्र चित्तौड़ ही अधिक रहा। वैसे अरावली के पश्चिम के मार्ग के केन्द्र में आबू प्रदेश व दिल्ली-मालवा के मार्ग में केन्द्रीय स्थिति हाड़ौती प्रदेश की थी, किन्तु चित्तौड़ की केन्द्रीय स्थिति की फिर भी उपेक्षा नहीं हो सकती थी। अतः मध्यकालीन जैन इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि चित्तौड़ ही राजस्थान का एकमात्र ऐसा केन्द्र था जहाँ श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों का वर्चस्व व केन्द्र रहा । खरतरगच्छ के आचार्यों का यह महत्त्वपूर्ण केन्द्र था तो दिगम्बर आचार्य परम्परा की गादी भी दक्षिण में उज्जैन
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