________________
मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म का मूल्यांकन एवं योगदान : ४६३
यहाँ से भिन्न-भिन्न शाखाएँ
1
से बारों व बारों से चित्तौड़ ही आकर स्थिर हुई थी । विभिन्न दिशाओं में प्रसारित हुई थीं। यही नहीं, १५वीं १६वीं शताब्दी में लोंका शाह द्वारा नया पंथ प्रारम्भ करने पर उसके राजस्थान में प्रचार का भी चित्तौड़ ही प्रमुख केन्द्र रहा । स्थानकवासी पंथ से तेरापंथ का उदय भी मेवाड़ प्रदेश में ही हुआ ।
मेवाड़ या चित्तौड़ प्रदेश से दिगम्बर प्रभाव क्षेत्र की भी एक निश्चित दिशा व क्षेत्र देखने को मिलता है, जो चित्तौड़ से दिल्ली मार्ग के आसपास का क्षेत्र है । स्पष्टतः उत्तरी भारत का राजनीतिक व सांस्कृतिक केन्द्र दिल्ली ही रहा है । अतः दिगम्बर आचार्यों का पादविहारी क्षेत्र चित्तौड़ से आगे अरावली से टकराकर पूर्व में ही बघेरा, अजमेर, नागौर, चातसू, आमेर, जयपुर आदि में अपनी गादियाँ स्थापित करता हुआ दिल्लो तक बढ़ा हुआ दिखाई देता है । यह सम्पूर्ण क्षेत्र अनुकूल जलवायु की पेटी थी ।
मेवाड़ के दक्षिण में दिगम्बर आचार्यों का एक प्रवास केन्द्र वागड़ प्रदेश में ईडर तक देखने को मिलता है । धुलेव में तो काष्ठा संघ व मूल संघ दोनों की गादियाँ रहीं । स्पष्टतः ये भी प्राकृतिक दृष्टि से सरसब्ज प्रदेश हैं और बहुत कुछ मालवा व गुजरात के ही प्रकृतिक अंग हैं । अतः जैनाचार्यों के लिये भौगोलिक अतिशयताओं के दृष्टिकोण से प्रतिवाधित क्षेत्र नहीं थे ।
पश्चिमी श्वेताम्बर प्रभाव क्षेत्र को गुजरात व दक्षिण से जोड़ने वाला भौगोलिक केन्द्र अर्बुदमंडल रहा अतः जैनधर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय का भी यह सबसे बड़ा सांस्कृतिक केन्द्र रहा। इस क्षेत्र के छोटे-छोटे गाँवों में भी सुन्दर जैन मन्दिर हैं । राजस्थान में प्रचलित कई गच्छों की उत्पत्ति यहीं से हुई । चंद्रावती, पिंडवाड़ा, बसंत - गढ़, सिरोही, आबू पर्वत आदि इस मंगल के महत्वपूर्ण लघु केन्द्र रहे ।
राजस्थान में जैनधर्म के स्वरूप निर्धारण में अरावली पर्वत की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । विदेशी आक्रमणकारियों के मार्ग निर्धारण में इस पर्वत की स्थिति का बहुत महत्व रहा । पश्चिम का क्षेत्र शुष्क होने के कारण बहुत कम आक्रमणकारियों का मार्ग रहा । दिल्ली में केन्द्रीय मुस्लिम सत्ता स्थापित हो जाने के पश्चात् तो दक्षिण की तरफ जाने वाले मार्ग राजस्थान में मेवाड़ व हाड़ौती से होकर ही थे । अतः हाड़ौती क्षेत्र में दिल्ली - मेवाड़ में सर्वदा संघर्ष की बहुत से जैन मन्दिरों को क्षति
जैन स्मारकों का विपुल विध्वंस दृष्टिगोचर होता है । स्थिति रहने के कारण पूर्वी व मध्य राजस्थान में भी पहुँची । दिल्ली शासकों के लिये दक्षिण आवागमन के लिये मार्ग अपनाना कई दृष्टियों से असुविधाजनक था अतः ये
अरावली के पश्चिम का प्रदेश भौगोलिक दृष्टि से
अपेक्षाकृत सुरक्षित क्षेत्र रहे और आक्रमण काल में यहाँ शास्त्र भण्डारों की स्थापना कर महत्वपूर्ण साहित्य, प्रतिमाओं आदि को सुरक्षित रखा गया । जैसलमेर के मन्दिरों में ८,००० से भी अधिक प्रतिमाएँ हैं जो राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों से लाई गई थीं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org