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२५२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्मं
का निर्माण कार्य १४३७ ई० में प्रारम्भ हुआ व १४३९ ई० में एक मंजिल बनकर पूर्ण हुई । आचार्य सोमचन्द्र सूरि के अत्यन्त वृद्ध हो जाने के कारण इसी समय, अर्थात् १४३९ ई० में प्रतिष्ठा कर दी गई । विभिन्न मूर्तियों के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इनकी प्रतिष्ठा अलग-अलग समय हुई । १४४९ ई० में प्रथम खंड की चारों मूर्तियों की सोम सुन्दर सूरि द्वारा, १४५० ई० में द्वितीय खंड की पश्चिमाभिमुख प्रतिभा की रत्नशेखर सूरि द्वारा, १४५१ ई० में इसी खण्ड की उत्तराभिमुख प्रतिमा की रत्नशेखर सूरि द्वारा व १४५२ ई० में द्वितीय खण्ड की पूर्वाभिमुख तथा तृतीय खण्ड की सभी प्रतिमाएँ रत्नशेखरसूरि द्वारा प्रतिष्ठित की गई । मन्दिर का प्रमुख शिल्पी, सोमपुरा -ब्राह्मण जाति का देपाक था । देपाक के ५० से भी अधिक शिल्पी सहायक थे । २ मन्दिर की प्रतिष्ठा आचार्य सोमसुन्दर सूरि ने करवाई | 3 मन्दिर के निर्माण के सम्बन्ध में अनेक किंवदन्तियाँ प्रसिद्ध हैं और सबका सार यही है कि इस मन्दिर का नक्शा दैविक शक्ति से प्राप्त हुआ था, लेकिन इसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है । कहा जाता है कि प्रारम्भ में इस मन्दिर को सातमंजिला बनाने की किसी कारणवश इसके ३ खण्ड ही बन पाये । 3 " जैन सर्व तीर्थं - इसका निर्माण व्यय ९९ लाख रुपये था । "
योजना थी, लेकिन
संग्रह” के अनुसार
यह मन्दिर ४८,००० वर्ग फुट जमीन पर निर्मित । इसके तलीय भाग में सेवाड़ी का पत्थर तथा दीवारों में सोनाणा का पत्थर प्रयुक्त हुआ है । शिखर के भीतरी भाग ईंटों से तथा मूर्तियाँ भी सोनाणा के पत्थर से निर्मित हैं । मूलनायक आदिनाथ की भव्य प्रतिमाएँ, श्वेत संगमरमर ( मकराना) की बनी हुई हैं। एक उच्च पीठिका पर आसीन, आदिनाथ की चतुर्मुखी प्रतिमाएँ पाँच फुट ऊँची व एक दूसरे की पीठ से लगी हुई, चारों दिशाओं में मुख किये हुये हैं । चारों ओर द्वार होने से प्रवेश करते ही मूलनायक मूर्ति के दर्शन किये जा सकते हैं ।
मन्दिर एक चबूतरे पर निर्मित है । २५ सीढ़ी चढ़कर, चबूतरे पर प्रवेश तोरण द्वार है । बरामदे में प्रवेश करते हो, मंडप की छत में नग्न एवं संभोग के विभिन्न आसनों का प्रदर्शन करती हुई मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । इस कारण डा० गोपीनाथ शर्मा इसे " वेश्या मन्दिर” कहते हैं, जो सत्य नहीं है । मन्दिर में घुसते ही दोनों ओर तहखाने हैं, जहाँ मुस्लिम आक्रमणों के समय, सुरक्षा के लिये मूर्तियाँ रखी जाती होंगी । पृथ्वी तल के
१. १४३९ ई० का लेख, पंक्ति ४६-४७ ॥
२. हरविलास शारदा - महाराणा कुम्भा, पृ० १५३-५४ ।
३.
१४३९ ई० का लेख, पंक्ति ४४ - ४६ ।
४.
कला मंदिर राणकपुर, पृ० २१-२२ ।
५. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, १, खण्ड २, पृ० २१६ ।
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