SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म सत्यपुरमंडल, कच्छ एवं सौराष्ट्र के भाग सम्मिलित थे । यह जैन मत का महान् संरक्षक था तथा इसने “मूलराज वसहिका' नामक जैन मन्दिर निर्मित करवाया था।' सिद्धराज जयसिंह एवं कुमारपाल के जैन धर्म के प्रति अनुराग एवं उदात्त विचारधारा के कारण, जैन मत का उत्थान एवं प्रसार अधिक तेज हुआ। जयसिंह यद्यपि शैव था, तथापि जैन धर्म के प्रति उसकी उदारता प्रशंसनीय थी। जयसिंह के दरबार में दिगम्बर आचार्य कुमुदचन्द्र और श्वेताम्बर आचार्य देव सूरि के मध्य, ११२५ ई० में वाद-विवाद हुआ था, जिसे सुनने के लिये सम्पूर्ण राज्य के जैन धर्मावलम्बी एकत्रित हुये थे। जयसिंह विद्वानों का आश्रयदाता भी था । तत्कालीन उद्भट आचार्य हेमचन्द्र भी इसके दरबार में आते रहते थे। जयसिंह का उत्तराधिकारी, कुमारपाल, हेमचन्द्राचार्य के प्रभाव के कारण जैन धर्मानुयायी हो गया था। कुमारपाल ने जैन धर्म के प्रचार के लिये कई उपाय किये तथा अपने राज्य को एक आदर्श जैन राज्य के रूप में संस्थापित करने का प्रयास किया। जैन मतानुसार त्याज्य विलासप्रिय वस्तुओं को, न केवल स्वयं ने त्यागा, अपितु अपनी प्रजा को भी तदनुरूप आचरण करने का परामर्श दिया । उसने अपने राज्य में जीव वध पर पाबन्दी लगा दी तथा इसका कठोरता पूर्वक पालन भी करवाया। "द्वयाश्रय" काव्य के अनुसार, पाली देश के ब्राह्मणों को, यज्ञ में पशु बलि के स्थान पर अन्न का उपयोग करना होता था। मेरुतुग के अनुसार, सपादलक्ष के एक साधारण व्यापारी को एक मूषक को मारने के दण्ड स्वरूप अपनी समस्त सम्पत्ति यूक बिहार बनवाने में खर्च करनी पड़ी थी । यद्यपि यह विवरण अतिरंजनापूर्ण है, किन्तु इससे यह अवश्य सिद्ध होता है कि कुमारपाल अहिंसा के अनुपालनार्थ कटिबद्ध था। ___ कुमारपाल विद्यानुरागी और विद्वानों का आश्रयदाता भी था। उसने अपने राज्य में विभिन्न स्थानों पर शास्त्र भण्डारों की स्थापना की थी। क वह इतना धर्मानुप्राणित था कि मेरुतुग के अनुसार, उसने १४४० मन्दिर निर्मित करवाये थे। सम्भव है कि इस संख्या में लेखक अतिरंजना का समावेश कर बैठा हो, किन्तु उसके द्वारा बड़ी संख्या में मन्दिर निर्मित करवाना असंदिग्ध ही है। ११३४ ई० के अभिलेख से विदित होता है कि उसने जालौर में भी एक मन्दिर का निर्माण करवाया था।" कुमारपाल को मृत्यु १. प्रबन्धचिन्तामणि, मूलराज प्रबन्ध, पृ० २२ । २. प्रभावकचरित्र, पृ० १७१-१८२, प्रबन्ध चिन्तामणि, पृ० ७८-८२ । ३. प्रबन्ध चिन्तामणि, पृ० ११० । ३.क प्रभावक चरित्र, पृ० ९२ । ४. प्रबन्ध चिन्तामणि, पृ० ११५ । ५. प्रोरिआसवेस, १९०८-०९, पृ० ५५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy