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जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : २९
सूरि की आज्ञा मिलने पर १९८८ ई० में, त्रिभुवन गिरि के संघ को लेकर इन्होंने तीर्थयात्रा की, तथा अन्य संघों के साथ जिनदत्त सूरि से भेंट की । त्रिभुवन गिरि के दुर्ग में १२वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, वादिदेव सूरि ने किसी प्रकाण्ड विद्वान् को वाद-विवाद में परास्त करने का गौरव अर्जित किया था । त्रिभुवनगिरि में उपकेश गच्छ से सम्बद्ध एक प्राचीन मंदिर भी था । 3
उपर्युक्त विभिन्न उल्लेखों से भरतपुर के निकटवर्ती क्षेत्रों में शूरसेन राजवंश के शासन के अन्तर्गत जैन धर्म की प्रतिष्ठा एवं प्रसार का ज्ञान होता है ।
(७) मेवाड़ क्षेत्र में जैन धर्म :
मेवाड़ क्षेत्र में अत्यन्त प्राचीन काल से जैन धर्म का अस्तित्व रहा है । ८वीं शताब्दी से ही विभिन्न शासकों ने जैन धर्म के प्रसार व उन्नति के लिये स्तुत्य प्रयास किये । मंदिर निर्माण, मूर्तियों की प्रतिष्ठा, अहिंसा पालन की उद्घोषणा तथा जैनाचार्यों का हार्दिक एवं सम्माननीय स्वागत तथा प्रवचन श्रवण द्वारा, मेवाड़ में, जैनेतर धर्मावलम्बी होते हुये भी, राजाओं ने जैन धर्म के प्रति सहिष्णुता एवं श्रद्धा बनाये रखी । ९४३ ई० * राजा भर्तृभट्ट का शासन था, जिसने अपने नाम पर भरतरिपुर बसाया था । इन्होंने "गुहिल - विहार" निर्मित करवा कर उसमें चैत्यपुरिया गच्छ के बुदगणी के माध्यम से आदिनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई थी । " इनके पुत्र राजा अल्लट के मन्त्री ने,
करवाई गई थी । आहड़ की एक राजा अल्लट, नरवाहन एवं शक्ति समय का प्रतीत होता है । ऐसा
घाट (आहड़ ) में एक जैन मंदिर निर्मित करवाया था, जिसमें संडेरक गच्छ के आचार्य (3 यशोदव सूरि के द्वारा पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित देवकुलिका के ९७७ ई० के खण्डित लेख में, मेवाड़ के कुमार का नाम उल्लिखित होने से, यह शक्ति कुमार के प्रतीत होता है कि शक्ति कुमार के अक्ष-पटलाधीश के द्वारा बनवाये गये किसी मंदिर का यह लेख है । अब यह लेख आहड़ के जैन मंदिर की देवकुलिका के छबने में खण्डित रूप में लगा हुआ है । ९७७ ई० के ही आहड़ के एक अन्य शिलालेख में शक्तिकुमार का नामोल्लेख तथा आहड़ में विपुल - वैभव सम्पन्न वैश्यों के निवास का वर्णन है ।" १२वीं
१. खबृगु, पृ० ३४ ।
२. भारतीय विद्या, २, पृ० ६२ ।
३. भारतीय विद्या, २, पृ० ६२ । ४. एरिराम्यूअ १९१४, क्र० १ । ५. जैसा, ७, पृ० १४६-१४७ ।
६. ओझा - उदयपुर राज्य, भाग १, पृ० १२४ -१३३ ।
७. राइस्त्री, पृ० ६६ ॥
८. इए, ३९, पृ० १९१ ।
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