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________________ २८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म के कर्दम भूपति" के नाम से प्रसिद्ध हैं। धनेश्वर सूरि ने "राजगच्छ" की स्थापना की थी तथा ये धार के परमार शासक वाक्पति मुंज के समकालीन माने जाते हैं ।' मुंज की अन्तिम तिथि ९९७ ई० थी। इस कदमभूपति की पहिचान ११५५ ई० के अनंगपाल देव के थाकरदा (इंगरपुर) अभिलेख में उल्लिखित, राजा पृथ्वीपाल देव उर्फ भर्तृपट्ट से की जाती है। इस अभिलेख में पृथ्वीपाल देव के पुत्र त्रिभुवन पाल देव, पौत्र विजयपाल एवं प्रपौत्र सूरपाल देव के भी उल्लेख हैं । यद्यपि इनमें राजवंश का नाम नहीं है, परन्तु ये शूरसेन शासक ही रहे होंगे। दिगम्बर जैन कवि दुर्गदेव ने, अपनी कृति "ऋष्ट समुच्चय" की रचना १०३२ ई० में राजा लक्ष्मी निवास के शासनकाल में, कुंभनगर के शांतिनाथ मंदिर में पूर्ण की थी। इस कुंभ नगर की पहिचान भरतपुर के निकटवर्ती कामा से की जाती है । इसमें उल्लिखित, राजा लक्ष्मी निवास की पहिचान १०१२ ई० के बयाना अभिलेख में वर्णित, चित्रलेखा के पुत्र लक्ष्मणराज से की जाती है। राजा विजयपाल के शासनकाल के, श्वेताम्बर काम्यक गच्छ के विष्णु सूरि एवं महेश्वर सूरि के नामोल्लेख युक्त, बयाना के १०४३ ई० के शिलालेख" में महेश्वर सूरि के निर्वाण का विवरण है। इसी विजयपाल को, दुर्ग का पुननिर्माण एवं विस्तार कर, विजय मंदिर गढ़ नाम देने का श्रेय दिया जाता है। काम्यकगच्छ की स्थापना, भरतपुर के निकटवर्ती कामा से मानी जाती है तथा इसी क्षेत्र में श्वेताम्बरों के इस गच्छ का विस्तार भी ज्ञात होता है। बयाना से प्राप्त अभिलेखों में नगर का नाम 'श्रीपथ' दिया है, जो कि बयाना का प्राचीन नाम था । बयाना तहसील के नारौली ग्राम से भी ११३६ ई० की लेखयुक्त जैन प्रतिमाएँ मिली हैं, जिससे यह क्षेत्र जैन धर्म का महान् केन्द्र प्रकट होता है। बयाना का अन्तिम शूरसेन शासक कुमारपाल था, जो १९५४ ई० में सिंहासन पर बैठा। इस कुमारपाल को जैनाचार्य जिनदत्त सूरि ने धार्मिक शिक्षा दी थी। यहाँ के शांतिनाथ मंदिर पर स्वर्ण कलश एवं ध्वज, जिनदत्त सूरि द्वारा प्रतिष्ठित करवाने का समारोह बड़े उत्साह से मनाया गया था। जिनदत्त सूरि के दो शिष्यों-जिनपालगणि एवं धर्मशीलगणि ने यशोभद्राचार्य के निकट अध्ययन किया था। अपने गुरु जिनदत्त १. जैन साहित्यनों संक्षिप्त इतिहास, पृ० १९७-१९८ । २. एरिराम्यूअ, १९१५.१६, पृ० ३ । ३. सिंघी जैन सिरीज, २१, भूमिका । ४. एइ, २२, पृ० १२० । '५. इए, २१, पृ० ५७। ६. प्रोरिआसवेस, १९२०-२१, पृ० ११६ । 49. खबृगु, पृ० १९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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