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________________ १३२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म की परम्परा का विरोध हुआ और अमूर्ति पूजक सम्प्रदाय अस्तित्व में आये, जिन्हें के० सी० जैन ने "प्रोटेस्टेन्ट" समुदाय को संज्ञा से अभिहित किया है।' ५. उत्तर मध्यकाल में स्थानकवासी मत व तेरापंथी मत अस्तित्व में आकर राजस्थान में अत्यधिक प्रभावशाली रहे, क्योंकि इस काल में मूर्तियों की प्रतिष्ठा में कमी आ गई तथा मध्यकाल में अस्तित्वमान गच्छों का उल्लेख भी लेखों में मिलना कम हो गया। इस काल को गच्छों का ह्रास काल व नवोदित पंथों का प्रसार काल माना जा सकता है। ६. गणों के स्थान पर गच्छों का प्राधान्य रहा व गण शब्द लुप्तप्राय हो गया। ७. गच्छों की उत्पत्ति के कारणों पर प्रकाश डालने वाले अभिलेखीय व साहित्यिक साक्ष्य बहुत कम हैं। ८. विभिन्न गच्छों में सैद्धान्तिक, शास्त्रीय या दार्शनिक आधारों पर भेद करना कठिन है, जबकि सम्प्रदाय या पंथों के सन्दर्भ में यह सम्भव है। ९. अधिकांश गच्छ राजस्थान व उत्तरी गुजरात में उत्पन्न हुए। १०. विविध गच्छों के आचार्यों ने जैन साहित्य और संस्कृति-प्रसार के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान दिया । सम्भवतः विविध गच्छों में परस्पर प्रतिस्पर्धा होने से भी एतदर्थ जागरूकता रही। ११. मध्यकालीन साहित्य एवं अभिलेखों में उल्लिखित यापनीय संघ का राजस्थान में उल्लेख प्राप्त नहीं होता। १२. पूर्व मध्यकाल में दिगम्बर सम्प्रदाय में माथुर संघ, देवसेन संघ व मूल संघ का ही अस्तित्व देखने को मिलता है। यद्यपि ये पहले से ही अस्तित्व में थे, किन्तु राजस्थान में इनका प्रचलन ११वीं शताब्दी से हुआ। अतः इस काल को संघों का उदयकाल या परिचय काल माना जा सकता है। १३. मध्यकाल में अनेकों संघ भेदों में से राजस्थान में केवल मूल संघ व काष्ठा संघ ही अस्तित्व में थे। माथुर संघ की लोकप्रियता उत्तरोत्तर क्षीण हुई और यह काष्ठा संघ का एक गच्छ बनकर रह गया । काष्ठा संघ भी वागड़ प्रदेश और केसरिया जी में गादी होने के कारण अस्तित्व में रहा । मूल संघ दक्षिणी, पूर्वी व मध्य राजस्थान में ही प्रचलन में रहा । अरावली के पश्चिम में, इस उत्कर्ष काल में भी इसका अस्तित्व स्थापित नहीं हुआ। १४. सामान्य मतभेदों के अतिरिक्त मुस्लिम आक्रमण भी विभिन्न संघों की गादियों के स्थानान्तरण के लिये उत्तरदायी था। १५. मध्यकाल में मुस्लिम आक्रमणों, विध्वंस एवं बलपूर्वक धर्म प्रचार की प्रतिक्रिया स्वरूप दिगम्बर सम्प्रदाय में भी तारणपंथ आदि अस्तित्व में आये । १. जैइरा, पृ० ९० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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