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जैनधर्म भेद और उपभेद : १३३ १६. मध्यकाल में भट्टारकों, आचार्यों व पंडितों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। इस काल में अराजकता, हिंसात्मक वातावरण, लूटपाट व विध्वंस के बावजूद भी धर्म प्रचार जारी रहा। इनमें से कुछ, सकलकीर्ति और शुभचन्द्र आदि उद्भट विद्वान् थे । इनका सबसे अमूल्य योगदान पांडुलिपियों को सुरक्षित बचाये रखने और एतदर्थ ग्रन्थों की कई-कई प्रतियां तैयार करवाने की दृष्टि से रहा ।
१७. भट्टारकों के मठ सांस्कृतिक केन्द्र थे, जहाँ संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला, नृत्य आदि शास्त्रीय कलाओं को संरक्षण प्राप्त था ।
१८. उत्तर मध्यकाल में तेरापंथ, गुमानपंथ, तोतापंथ आदि के उदय से भट्टारक परम्परा को क्षति हुई और संघों का वर्चस्व कुछ कम हो गया।
१९. श्वेताम्बर सम्प्रदाय की भाँति राजस्थान में दिगम्बर सम्प्रदाय में अधिक भेद देखने को नहीं मिलते । इससे सिद्ध होता है कि राजस्थान में श्वेताम्बर मतानुयायी अधिक थे । दिगम्बर सम्प्रदाय का प्रचलन यहाँ प्रारम्भ से ही कम रहा प्रतीत होता है क्योंकि सभी संघ भेद यहाँ कभी अस्तित्व में नहीं रहे। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चैत्यवासियों के विरुद्ध जो विद्रोह ११वीं व १२वीं शताब्दी में प्रारम्भ हो गया था, वह भट्टारकों के विरुद्ध १६वीं व १७वीं शताब्दी में पराकाष्ठा पर देखने को मिलता है ।
२०. श्वेताम्बर आचार्यों की तुलना में दिगम्बर आचार्यों में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और वर्चस्व कायम रखने की भावना कम दिखाई देती है, क्योंकि दिगम्बर सम्प्रदाय में व्यक्तिगत नामों पर आधारित भेद-प्रभेद बहुत कम अस्तित्व में आये, जबकि श्वेताम्बर गच्छों में इनकी भरमार है। (स) जैन जातियाँ एवं गोत्र :
उत्तरी भारत में जैन मतानुयायियों में पाई जाने वाली अधिकांश जातियों का उत्पत्ति स्थान राजस्थान है । इनमें से भी अधिकांश का उत्पत्ति स्थान, तरीका और काल, रहस्य के आवरण में छुपा हुआ है एवं इनकी प्राचीनता को सिद्ध करने वाली मात्र अनुश्रुतियाँ ही हैं । वस्तुतः जातियों एवं गोत्रों का नामोल्लेख ७वीं शताब्दी के पूर्व कहीं देखने को भी नहीं मिलता है। पृष्ठभूमि :
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से ये जातियां ८वीं से १३वीं शताब्दी के मध्य अस्तित्व में आई होंगी, क्योंकि यह काल ही राजस्थान में जैन धर्म का स्वर्णयुग था। इस काल में कई प्रभावशाली जैनाचार्य हुए, जिन्होंने असंख्य राजपूतों, ब्राह्मणों और वैश्यों को जैन मत में धर्मान्तरित किया। यह युग राजस्थान में प्रचुर सम्पन्नता का था। ओसियां, मंडोर, खंडेला, किराडू, भीनमाल, जालौर, आहड़, चित्तौड़, बसन्तगढ़, दोहद, चन्द्रावती, बयाना, नगर, शेरगढ़, अटरू, सांभर, चातसू, लाडनू, नागौर, डीडवाना, मेडता
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