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________________ १३४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म आदि श्री सम्पन्न एवं व्यापारिक महत्व के नगर थे । हरिभद्र सूरि को "समराइच्चकहा " (८वीं शताब्दी) और उद्योतन सूरि की " कुवलयमाला" (७७८ ई०) में इस काल की व्यापारिक समृद्धि का अच्छा वर्णन है । जैन राजनीतिज्ञों जैसे – विमल, वस्तुपाल आदि ने भी जैन मत का प्रचार, प्रसार किया । व्यापारियों एवं श्रेष्ठी वर्ग ने आर्थिक सहयोग देकर मन्दिर, मूर्तियाँ आदि निर्मित करवाई और जैन धर्म की प्रभावना एवं प्रसार में जैनाचार्यों को सहयोग दिया । भिन्न-भिन्न कालखंडों में जैन मत में दीक्षित होकर आये जनसमूह, विभिन्न आधारों पर जातियों एवं गोत्रों का सृजन करते रहे । पूर्व मध्यकाल में जातियों के उत्पन्न होने के लिये बहुत उपयुक्त वातावरण भी था । जैन मत के आचार्य स्वयं व्यक्तिगत आकांक्षाओं एवं छोटी-छोटी बातों के आधार पर अलगाव के शिकार हो रहे थे । नये-नये गण-गच्छ पैदा हो रहे थे । अतः स्वाभाविक है कि श्रावक समूह पर इसका प्रभाव रहा हो, जो कई जातियों एवं गोत्रों के रूप में परिलक्षित होता है । धार्मिक भेदों की तरह जातियाँ एवं गोत्र भी शनैः शनैः अस्तित्व में आये । मध्यकाल में मुस्लिम विध्वंस की पराकाष्ठा के कारण धर्मान्तरण व आवासप्रवास अधिक होने से विभिन्न व्यवसाय, स्थानों एवं कुलों के समूहों ने इन आधारों पर ही अपने गोत्रों का नामकरण कर लिया । मध्यकाल में गोत्रों की उत्पत्ति बहुसंख्य एवं पराकाष्ठा पर रही। उत्तर मध्यकाल में अधिकांश गोत्र एवं जातियाँ सुस्थापित एवं दृढ़ हो गई थीं, अतः नये गोत्रादि कम पैदा हुये । राजपूत मूलतः क्षत्रिय जाति रही है, जिसका धर्म ही युद्धरत रहना रहा है । मध्यकाल में हिंसा व युद्ध की विभीषिका से बचने का सुगम उपाय अहिंसक जैन मत की शरण ग्रहण करना था, अतः अधिसंख्य क्षत्रिय जैन बने । यहीं नहीं, जैन एक श्रीसम्पन्न समुदाय व वाणिज्यिक कर्मी वर्ग था, जिसकी समाज व राजदरबारों में उत्तम प्रतिष्ठा भी थी । जैनाचार्यों की राजाओं एवं समाज में अच्छी छवि थी, अतः ऐसे उत्तम धर्म व समाज से जुड़ना अन्य वर्गों के लिये कतई हानिप्रद नहीं था, अपितु लाभदायक ही था । सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक और पारिस्थितिक अनुकूलता के धरातल पर जैनाचार्यों के प्रयासों से जिन जातियों के बीज पूर्व मध्यकाल में बोये गये, वे मध्यकाल में गोत्रों के रूप में पुष्पित, पल्लवित हुये, जिनका सौरभ असंख्य अभिलेखों व प्रशस्तियों में बिखरा पड़ा है । उत्तर मध्यकाल में भी यह सौरभ चिरस्थायी बना रहा । (१) ओसवाल : यह राजस्थान में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत में श्वेताम्बर सम्प्रदाय की प्रमुख जाति है । अभिलेखों में इसके लिये उपकेश, उवेश, उवेशवाल, उपकेश वंश, उसवाल आदि शब्दों का प्रयोग भी देखने को मिलता है । वाणिज्यिक, प्रशासनिक, राजनैतिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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