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जैनधर्म भेद और उपभेद : १३५ और जीवन के विविध क्षेत्रों में यह वर्ग उच्च स्थानों पर प्रतिष्ठित है । इसकी उत्पत्ति मारवाड़ के ओसियाँ नामक स्थान से मानी जाती है। श्रीमाल के राज्य परिवार के एक वंशज उप्पलदेव यहाँ के प्रतिहार शासक के पास शरणागत होकर आये और कालान्तर में यहीं के शासक हो गये । संयोग से जैन मुनि रत्नप्रभ सूरि इस स्थान पर आये, उस समय उप्पलदेव के एकमात्र पुत्र को सर्प ने डस लिया था । राजा ने मुनि से प्रार्थना की और आचार्य ने चमत्कारिक ढंग से राजकुमार को स्वस्थ कर दिया । कृतज्ञ राजा ने अपनी प्रजा के साथ जैन धर्म ग्रहण कर लिया और रत्नप्रभ सूरि ने उस समूह को ओसवाल जाति की संज्ञा प्रदान की। इस घटना के काल निर्धारण और ओसवाल जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं।'
(क) "नाभिनंदनोद्धार-प्रबंध" और "उपकेश गच्छ चरित्र" के अनुसार पार्श्वनाथ अनवय के सातवें पट्टधर रत्नप्रभ सूरि ने ओसवंश की स्थापना ईसा पूर्व ४५७ में की।
(ख) भाटों की राय के अनुसार ओसवाल जाति अठारह गोत्रों के साथ रत्नप्रभ सूरि के उपदेशों के प्रभाव से मारवाड़ में उपकेश नगर में १६५ ई० में स्थापित की गई थी।
(ग) “पट्टावलि-प्रबन्ध" के अनुसार ११२४ ई० में उचित सूरि हुये, इनके समय से धर्मघोषीय गण उचितवाल कहा जाने लगा और इनसे प्रतिबोध पाये गये श्रावक इस समय ओसवाल कहलाते हैं ।२
(व) उक्त तीनों मत सही प्रतीत नहीं होते, क्योंकि ८वीं शताब्दी के पूर्व इस जाति का कहीं उल्लेख नहीं मिलता और “पट्टावलि-प्रबन्ध" बहुत बाद में लिखी गई थी। उचित मत यही है कि राजा उप्पलदेव और उसको प्रजा रत्नप्रभ सूरि के द्वारा जैन मत में धर्मान्तरित किये गये और ओसवाल जाति ८वों से १०वीं शताब्दी के मध्य निर्मित हुई। ओसवालों के गोत्र :
धर्मान्तरण के पश्चात् ओसवाल संख्या में बढ़ते गये । यह संख्या वृद्धि तेजी से हुई, क्योंकि अब ये युद्ध प्रिय जाति में नहीं थे तथा युद्ध न होने के कारण जनक्षति भी नहीं हुई थी। खरतर गच्छ के विभिन्न आचार्य मुख्यतः वर्धमान सूरि, जिनेश्वर सूरि, अभयदेव सूरि, जिनवल्लभ सूरि, जिनदत्त सूरि, जिनचन्द्र सूरि, जिनपति सूरि, जिन कुशल सूरि, जिनभद्र सूरि आदि १२वीं से १४वीं शताब्दी के मध्य विभिन्न परिवारों
१. जैइस, पृ० ९४॥ २. पप्रस, पृ० १४ । ३. जैइरा, पृ० ९४ ।
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