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________________ २६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म थी । कासिन्द्रा के जैन मन्दिर के १०३४ ई० के लेख में भीनमाल की समृद्धि और प्राग्वाट वैश्यों के बाहुल्य का उल्लेख है ।' अथूणा के जैन मन्दिर को ११०९ ई० को प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इस समय वागड़ क्षेत्र परमारों के अन्तर्गत था। इस प्रशस्ति में मंडलीक, चामुण्डराज व उसके पुत्र विजयराज का अंकन है। इसी प्रकार ९९४ ई० के राजपूताना म्यूजियम के एक मूर्ति लेख में "जयति श्री वागट संघः" उल्लिखित है, अर्थात् १०वीं शताब्दी में वागड़ क्षेत्र में जैन मत का अत्यधिक प्रचार था। __धार (मालवा) के परमार शासकों ने भी जैनधर्म के प्रति सहिष्णु दृष्टिकोण अपनाया । राजस्थान के बहुत से क्षेत्र-मेवाड़, सिरोही, कोटा और झालावाड़ इनके शासनान्तर्गत थे। इन प्रदेशों में जैनधर्म की लोकप्रियता का ज्ञान, विस्तृत भग्नावशेषों से होता है। धार का परमार शासक नरवर्मन, शैव मतावलम्बी होते हुए भी, आचार्य जिनवल्लभ सूरि के कारण जैनधर्म के प्रति अत्यन्त श्रद्धालु था। खरतरगच्छ की परम्परा से ज्ञात होता है कि नरवर्मन के दरबार में दो दक्षिणात्य ब्राह्मण एक समस्या के निदान हेतु धार आये थे। धार के विद्वान् उस समस्या का सन्तोषप्रद हल नहीं कर सके, अतः राजा ने उन ब्राह्मणों को जिन वल्लभ सूरि के पास, चित्तौड़ भेज दिया, जिन्होंने तुरन्त सन्तोषप्रद हल निकाल दिया। जब जिनवल्लभ सूरि धारा नगरी आये, तो राजा नरवर्मन ने उनको राजमहल में आमन्त्रित किया तथा उनके सारगर्भित उपदेशों से अत्यन्त प्रभावित हुआ। नरवर्मन ने सूरि जी को ३ गाँव या ३० हजार द्रम दान देने की इच्छा व्यक्त की, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। सूरि जी के उपदेशों से, नरवर्मन ने चित्तौड़ की मंडपिका से, वहाँ के खरतरगच्छ के मन्दिरों को २ द्रम दैनिक दिये जाने के आदेश दिये। (५) हस्तिकुण्डी के राष्ट्रकूटों के अन्तर्गत जैन धर्म : हथंडी, मारवाड़ में बीजापुर के निकट है। यहाँ १०वीं शताब्दी में राठौड़ों का शासन करना ज्ञात होता है। हथूडी के जैन मन्दिर से प्राप्त ९१६ ई०, ९३९ ई० और ९९६ ई० के अभिलेखों में राष्ट्रकूटों की राजवंशावली में हरिवर्मा, विदग्धराज, मम्मट, धवल और बालाप्रसाद के नाम वणित है। सामान्यतः, यह राठौड़ राजवंश १. श्री जैन तीर्थ सर्व संग्रह, भाग १, खण्ड २, पृ० २६१ । २. वीर विनोद, भाग २, पृ० ११९७-९८, ओझा-बांसवाड़ा राज्य, पृ० ३५ । ३. ओझा-डूंगरपुर राज्य, पृ० १। ४. खबृगु, पृ० १३ । ५. एइ, १०, पृ० १०-१८; नाजैलेस, भाग १, ऋ० ८९८; प्राजलेस, २, सं० ३०८।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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