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२९८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
(ख) धातु प्रतिमाएँ :
मध्यकाल की धातु प्रतिमाओं में, बसंतगढ़ शैली की धातु प्रतिमाओं के निदर्शन की दृष्टि से, आबू के पित्तलहर मन्दिर एवं अचलगढ़ के मन्दिर की धातु प्रतिमाओं का बहुत महत्त्व है, जो पूर्व मध्यकाल की तुलना में अब वजन और विशालता की ओर बढ़ती दिखाई देती हैं । पित्तलहर मन्दिर की १०८ मन वजन वाली ८ फुट लम्बी व ४ फुट चौड़ी सपरिकर धातु प्रतिमा इसका प्रमाण है, जो देपाक नामक शिल्पी के द्वारा ढाली गई थी । यह मूर्ति १४६८ ई० में मंत्री गदा ने प्रतिष्ठित की थी । इस काल की दूसरी प्रसिद्ध धातु प्रतिमा १५०७ ई० में प्रतिष्ठित ऋषभदेव की है, जिसे वाछा के पुत्र देपा और हरदास ने ढाला था । डूंगरपुर के धातु कलाकारों द्वारा १४६९ ई० से १४६९ ई० के मध्य ढाली गई, इस मन्दिर में १२ मूर्तियाँ हैं, जिनका वजन १४४४ मन है । इन धातु प्रतिमाओं के विशाल परिकर में यक्ष, गन्धर्व, विद्यादेवियों तथा नवग्रहादि का अंकन बहुत स्पष्ट है । इसी काल की १४४० ई० की भट्टारक सकल कीर्ति द्वारा प्रतिष्ठित एक पंचतीर्थी कालंदरी के शान्तिनाथ मन्दिर में विद्यमान है । सिरोही के जैन पुरातत्व मन्दिर में १३वीं शताब्दी से १६वीं शताब्दी तक की ४५८ धातु प्रतिमाएँ हैं | बीकानेर के चिंतामणि पार्श्वनाथ मन्दिर में भी इन शताब्दियों की कई मूर्तियाँ हैं । मध्यकाल की अनेक चौबी सियाँ, पंचतीथियाँ, त्रितिथियाँ व एकतीर्थियाँ राजस्थान के विभिन्न मन्दिरों में विशाल संख्या में उपलब्ध हैं ।"
इन शताब्दियों की धातु प्रतिमाओं में अधिकांश में चाँदी व शुद्ध ताम्बे का जड़ाव छोड़ दिया गया है । नेत्रों व कानों की विशालता में कमी आई है । परिकर की सजावट एवं अलंकरण में कलात्मकता का मात्र आवश्यक अंकन ही दिखाई देता है ।
( ३ ) उत्तर मध्यकाल :
(क) प्रस्तर प्रतिमाएँ :
१७वीं एवं १८वीं शताब्दी में संगमरमर को विविध रंगों में तथा स्थानीय उपलब्ध पाषाणों की अनेक मूर्तियाँ निर्मित हुई हैं, जो राजस्थान के सभी जैन मन्दिरों में उपलब्ध हैं । इन प्रस्तर प्रतिमाओं में कोई कलात्मक वैशिष्ट्य नहीं दिखाई देता, अपितु प्रस्तर कला एवं उत्कीर्णन का ह्रास ही दृष्टिगोचर होता है । यद्यपि मूर्तियों का अनुपात, ताल व अंग-सौष्ठव सानुपातिक है, फिर भी ये मूर्तियाँ वह भव्य छाप नहीं
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१. असावे, पृ० ४५ ।
२. देखें नाजैलेस, प्रलेस, श्रीजैप्रलेस आदि ।
३. वही ।
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