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बैन कला : २९७ १५८२ ई० में महाराणा रायसिंह व मंत्री कर्मचन्द्र के प्रयासों से बीकानेर में पुनः आई थीं। इन मूर्तियों में कांस्य, पीतल और ताँबे की कई विलक्षण मूर्तियाँ हैं और कुछ ९वीं से १२वीं शताब्दी के मध्य की भी हैं।
पूर्व मध्यकालीन धातु प्रतिमाओं में यक्षों, गन्धर्वो एवं चामर-धारियों के स्वरूपों में कलात्मकता है। प्रतिमाओं के मस्तक पर घुघराले बालों का केशोरणाओं के रूप में प्रदर्शन है । इन प्रतिमाओं में चँवर को धारियों, गजाभिषेक के अलंकरण, पीठासीन के चाँदी-तांबों के जड़ाव स्पष्ट दिखाई देते हैं। परिकर एवं उसकी प्रत्येक वस्तु का अंकन कलात्मक होता था । बसन्तगढ़ व पिंडवाडा मन्दिर में संग्रहीत धातु प्रतिमाएँ, सिरोही के पुरातत्व मन्दिर की धातु प्रतिमाएँ एवं कृष्ण गंज मन्दिर की डेढ़ फीट की सपरिकर धातु प्रतिमा इनके अच्छे उदाहरण हैं। इन सबमें आँखें बड़ी, खुली एवं नुकीली बताई गई हैं। अपेक्षाकृत अधिक सोने चांदी के प्रयोग के कारण इनकी चमक में एक आकर्षण है। (२) मध्यकाल : (क) प्रस्तर प्रतिमाएं
१२वीं शताब्दी के पश्चात् की प्रस्तर प्रतिमाए अधिक सुन्दर तो नहीं हैं, फिर भी कुछ, कलात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । नागदा के अद्भुदजी के जैन मन्दिर में शांतिनाथ की १० फीट ऊँची एक पद्मासन प्रतिमा है । विशाल आकार, सौन्दर्य और शिल्प को दृष्टि से यह प्रतिमा इस क्षेत्र में एक मात्र एवं अद्भुत होने के कारण, इस तीर्थ का नाम ही अद्भुदजी हो गया। प्रतिमा लेख के अनुसार १४७३ ई० में महाराणा कुम्भा के शासनकाल में सारंग ने इस मूर्ति को बनाया था। जयपुर के एक जैन मंदिर में दो उत्कृष्ट चौबीसी प्रतिमाएं सफेद संगमरमर पर निर्मित हैं, जिन पर नवग्रह, इन्द्र, अप्सरायें आदि सुन्दरता पूर्वक उकेरे गये हैं।' इस काल में असंख्य प्रस्तर प्रतिमाएं निर्मित हुईं और राजस्थान के विभिन्न जैन मन्दिरों में प्रतिष्ठित हैं । ये मूर्तियाँ विभिन्न प्रकार के प्रेनाइट, बालुकामय एवं रंग-बिरंगे संगमरमर के पाषाणों पर उत्कीर्ण मिलती हैं। एकतीर्थी मूर्तियों के अतिरिक्त पाषाण में ही निर्मित त्रितीथियों, पंचतीथियों एवं चौबीसियों की संख्या भी विपुल है। राजस्थान के प्रायः सभी जैन मन्दिरों में मध्यकालीन एकाधिक मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं, जिन पर १२वीं शताब्दी से १६वीं शताब्दी के लेखों में आचार्यों, प्रतिष्ठा-कारों, श्रावकों, उनकी जाति, गच्छ, परिवार आदि का भी वर्णन होता है।
१. वोनिस्मा, पृ० २-३४ । २. नाजैलेस, प्रलेस एवं श्रीजैप्रलेस आदि ।
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