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जेन कला : २९९ छोड़तीं, जो पूर्वं मध्यकालीन मूर्तियों की सात्विकता में है । वस्तुतः इस काल में मूर्ति कला का स्वान्तः सुखाय पक्ष कम हो गया और व्यावसायिक रूप में प्रचलन में रहा (ख) धातु प्रतिमाएँ :
१६०३ ई० में सिरोही के अजितनाथ मन्दिर में चिंतामणि पार्श्वनाथ की १३ × १३ फीट की प्रतिमा इस काल की बदलती कलात्मकता को सूचित करती है । चूँकि इस काल में आबू में तोपों की नालों की ढलाई भी होती थी, अतः धातु प्रतिमाओं में व्यावसायिकता का प्रवेश हो गया तथा ढलाई में एकरूपता नहीं रही । इस काल की मूर्तियों में ऊँचाई, चौड़ाई व वजन का संतुलन भी भिन्न-भिन्न दिखाई देता है । कला की दृष्टि से इन मूर्तियों का विशेष महत्त्व नहीं है, फिर भी प्राप्त लेखों के अनुसार इनकी संख्या विशाल है ।'
तीर्थंकरेतर मूर्तियाँ :
१. देवी-देवता :
तीर्थंकरों के अतिरिक्त जैन लोग अन्य कई देवी- देवताओं, जैसे - सरस्वती, अम्बिका, पद्मावती आदि को भी पूज्य मानते थे । हिन्दू देवी-देवताओं से पार्थक्य दर्शाने के लिए, इन्हें तीर्थकरों के साथ ही चित्रित किया जाता था । सामान्यतया इनके मुकुट पर उस तीर्थंकर की मूर्ति उत्कीर्ण होती है, जिनसे कि वे सम्बद्ध होते हैं । इनकी शिल्प योजना व निर्माण में शास्त्रीय सिद्धान्तों की अनुपालना के साथ-साथ कलात्मकता भी है । ये उत्कृष्ट कलानैपुण्य, संतुलन, अनुपात और अभिव्यक्ति की प्रखरता को उद्घाटित करती हैं ।
२ सरस्वती. :
सरस्वती की प्रतिमाओं के तीन प्रकार हैं- दो भुजाओं वाली, चतुर्भुजी एवं बहुभुजी | इसके पृथक् लक्षण- पुस्तक, हंस या कभी वाहन के रूप में मयूर हैं । सिरोही राज्य में पिंडवाड़ा के जैन मंदिर से ७वीं या ध्वीं शताब्दी की सरस्वती की एक सुन्दर धातु प्रतिमा प्राप्त हुई है, जो कमलारूढ़ है । बायें हाथ में पुस्तक व दायें हाथ में कमल है । राजपूताना म्यूजियम में काले पत्थर की सुन्दर सरस्वती प्रतिमा बाँसवाड़ा के अणा ग्राम से प्राप्त की गई है । यह चतुर्भुजी है, जिनमें वीणा, पुस्तक, कमल आदि हैं। देवी के मुकुट पर जिन का छोटा चिह्न अंकित है । नरैना से १०४५ ई० में प्राप्त सरस्वती प्रतिमा कलात्मक भव्यता से सम्पन्न है । अजमेर में अजारी के जैन मन्दिर से, लाई गई एक सुन्दर प्रतिमा है । अचलगढ़ में एक छोटी सरस्वती मूर्ति हाथों में वीणा,
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१. देखें नाजैलेस, प्रलेस, श्रीजैप्रलेस आदि ।
२. प्रोरिआसवेस, १९०५-०६, पृ० ४८
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