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२२४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म जैन धर्मावलम्बियों के कई परिवार शादी, विवाह, केश मुंडन आदि शुभ अवसरों पर यहाँ की यात्रा करते हैं, मनौती मनाते हैं ।' यहाँ बने हुए तीर्थ रक्षक क्षेत्रपाल का प्रमुख स्थान, दर्शनीय एवं पूजनीय बना हुआ है। वर्तमान में तो इस पाषाणी नगरी की आबादी शून्य मात्र ही है। यह प्राचीन स्थल १०वीं से १७वीं शताब्दी तक आबाद रहा । कर्नल टॉड के अनुसार यहाँ १०२७ ई० में महमूद गजनवी ने, ११७८ ई० में मोहम्मद गोरी ने व बाद में भी मुस्लिम विध्वंस का ताण्डव नृत्य हुआ ।
___ इन्हीं खण्डहरों की बस्ती में भग्नावशेष रूप में तीन जैन मन्दिर अभी भी विद्यमान हैं, जो अति प्राचीन हैं । “खरतरगच्छ पट्टावली" के अनुसार उद्धर्ण मंत्री ११६६ ई० के आसपास हुआ। इसके पुत्र कुलधर ने जूना नगर में उत्तुङ्ग तोरण का जैन मन्दिर बनवाया।३ जूना स्थित जैन मन्दिर में चार शिलालेख अभी भी विद्यमान हैं, जिसमें १२३९ ई० के शिलालेख में, जालौर के महाराजा चौहान सामंत सिंह के राज्य का उल्लेख है। दूसरे १२९५ ई० एवं तीसरे १२९९ ई० के शिलालेख में इस मन्दिर को ऊँचे तोरण कला आदिनाथ का जैन मन्दिर होना बताया है। इस मन्दिर की प्रतिष्ठा एवं निर्माण पर गुजरात के सोलंकी भीमदेव के समय चलने वाली धनराशि भीम प्रियविश्वा के खर्च होने का उल्लेख है। चौथे, १६३६ ई. के लेख में इस तीर्थ की महत्ता वर्णित है।
११६६ ई० में उद्धर्ण के पुत्र कुलधर द्वारा बनवाये गये आदिनाथ मन्दिर पर, आचार्य जिनेश्वर सरि ने १२२६ ई० में ध्वजा फहराई। इनके ही द्वारा १२५२ ई० में पालनपुर में प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित हुआ और सहजाराम के पुत्र बाछड़ ने जूना आकर उत्सव पूर्वक दो स्वर्ण कलशों की प्रतिष्ठा करवा कर आदिनाथ मन्दिर पर शिखर चढ़वाये ।' १२५५ ई० में चण्डतिलक ने "अभय कुमार चरित्र महाकाव्य" जूना में ही लिखना प्रारम्भ किया । १२७८ ई० में जिनप्रबोध सूरि ने जूना में पद्यवीरि, सुधा कलश, तिलक कीर्ति, लक्ष्मी कलश, नेमिप्रभु, हेमतिलक और नेमितिलक और नेमितिलक को समारोह पूर्वक दीक्षित किया। यहां कई आचार्यों ने चातुर्मास किये और कई धार्मिक ग्रंथों की रचना की । कुशल सूरि ने १३२५ ई० में जूना में चातुर्मास किया । आचार्य पद्म सूरि के यहाँ आगमन पर चौहान राजा शिखरसिंह एवं कई श्रावकों ने उनक
१. विनिस्मा, १९७५, पृ० २-१९ । २. वही, पृ० २-१७ । ३. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, पृ० १८१ । ४. खबृगु, पृ० ४९ । ५. वही। ६. गाओसि, ७६, पृ० ३९४ ।
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