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________________ - जैन तीर्थ : २२५ भव्य स्वागत किया।' यहाँ ओसवाल, पारख गोत्रीय देकोशाह के पुत्र ने, १४६४ ई० में दीक्षा ग्रहण की, जो बाद में जिनसमुद्र सूरि कहलाये । १० दिसम्बर १९७० ई० को जूना की एक पहाड़ी पर वन विभाग के श्रमिकों द्वारा वृक्ष लगाते समय कुछ जैन प्रतिमाएँ मिलीं, जो अति प्राचीन एवं खण्डित अवस्था में थीं । यह स्थान जूना दुर्ग से एक फलांग दूर पहाड़ी पर है। इसका अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि यहाँ पर विशाल एवं सुन्दर शिल्पकलाकृतियों का जैन संग्रह रहा होगा । अवशेषों को देखने से मन्दिर का प्रवेश द्वार, श्रृंगार चौकी, रंग मण्डप, सभा मण्डप, मूल गंभारा, परिक्रमा स्थल, चारों ओर प्राचीरें व पहाड़ी से उतरने की पक्की पगडंडी अब भी छिन्न-भिन्न अवस्था में दृष्टिगत है। यहाँ के मन्दिरों को शिल्पकला, रणकपुर व दिलवाड़ा के मन्दिरों की भाँति भरे पाषाण पर उकेरी हुई है। शिल्प-सौन्दर्य युक्त, छतें एवं गुम्बद अभी भी विद्यमान हैं। खम्भों, प्राचीरों, गर्भगृह आदि सभी पर कला के उत्कृष्ट नमूने तराशे हुये हैं । आदिनाथ मन्दिर में लक्ष्मी, सरस्वती एवं शक्ति की प्रतिमाएँ दृष्टव्य हैं। जूना का प्राचीन वैभव वस्तुतः खण्डहरों में ही दिखाई देता है । (३४) वरमाण तीर्थ : वामनवाड़ महावीर तीर्थ, सिरोही रोड रेलवे स्टेशन से ७ कि. मी. दूर, अरावली पर्वत की उपत्यका में स्थित है । अभिलेखों एवं साहित्य के आधार पर इसके प्राचीन नाम "ब्राह्मणवाडा", "ब्रह्माण", "ब्राह्मवाटक", "बम्मनवाड़" आदि मिलते हैं। यह तीर्थ एक तरफ पहाड़ व तीन तरफ विशाल परकोटे से घिरा है, जिसमें तीन विशाल गजद्वार हैं । पहाड़ी पर शान्तिसूरि को ध्यान कुटी है एवं सम्मेदशिखर तीर्थ की सुन्दर रचना की हुई है । श्रमण परम्परा एवं जैन इतिहास के अनुसार महावीर ने छद्मस्थ अवस्था में यहाँ विचरण किया था तथा इस तीर्थ की स्थापना, उनके जीवन के ३७वें वर्ष में ही हो गई थी, अतः इसे "जीवित स्वामी तीर्थ' भी कहते हैं। इस सन्दर्भ में मूंगथला (११५९ ई०) तथा भीनमाल (१२७७ ई०) के शिलालेख उल्लेखनीय हैं। सिद्धसेन कृत 'सकल तीर्थ स्तोत्र" में इस तीर्थ का उल्लेख किया गया है। १४५३ ई० में रचित मेघ को “तीर्थमाला" में भी इस तीर्थ की प्रभावना वर्णित है । लावण्यसमय की १६८९ ई०, शीलविजय की १६९३ ई०, सौभाग्यविजय व ज्ञानविमल की १६९८ ई० की तीर्थमालाओं से इस तीर्थ को भारत के मुख्य तीर्थों में माने जाने का उल्लेख है। कवि लावण्यसमय ने १४७२ ई०, विशाल सुन्दर ने १६२८ ई० में तथा क्षेम कुशल आदि ने भी स्तोत्र के रूप में इस तीर्थ की महिमा गाई है। १. खबृगु, पृ० ८६ । २. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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