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जैन तीर्थ : २१७ शासन काल में, विनयचन्द्र सूरि के उपदेशों से पुननिर्मित हुआ।' दूसरे जैन मन्दिर में, जो मूलतः मूलनायक महावीर का था, १५०० ई० में सिंहा और समदा के द्वारा आदिनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई गई। इनके प्रपिता सायर ने पहले कुछ कक्षों को पुनर्निर्मित करवाया था, अतः यह मन्दिर "सायर जिन वसति' के नाम से जाना जाने लगा। इसके अतिरिक्त १५१० ई० से १५१४ ई० के मध्य मुंजपुर, वीरमगांव, मेहमेद बाद और चांपानेर आदि गांवों के विभिन्न संघों ने भी मन्दिर के विभिन्न हिस्सों का जीर्णोद्धार करने में सहायता की। इन संघों के इस कार्य के लिये तपागच्छ के इन्द्र नन्दि, प्रमोद सुन्दर और सौभाग्यनन्दि ने प्रेरणा दी थी। प्रतिमा का नवीनीकरण भी सायर के वंशजों ने १६१७ ई० में करवाया, किन्तु स्थापना तपागच्छ के विजयदेव सरि ने करवाई। १६६४ ई० के एक अभिलेख में वर्णन है कि यह निर्माण नाडलाई के पोरवाड़ नाथाक ने विजयदेव सूरि के द्वारा करवाया । उस समय अभयराज का शासन था। नडलाई, मध्यकाल में भी जैन तीर्थ रहा । कडुआ पंथ के प्रवर्तक कडुआशाह १४४० ई० में यहीं पैदा हुये थे।५ विजयदान सूरि ने हीर विजय सरि को पण्डित की उपाधि नडलाई में प्रदान को। विजयसेन सूरि का जन्म स्थान भी यही था । संडेरक गच्छ के ईश्वर सूरि ने १५२४ ई० में "सुमति चरित्र" की रचना की और उन्होंने आदिनाथ मन्दिर के जीर्णोद्धार करवाने की प्रेरणा भी दी। चौहान शासकों के संरक्षण में जैन धर्म नडलाई में बहुत फला-फूला। विविध प्रकार के दान-अनुदान एवं भेंट मन्दिरों के निमित्त दी गईं। (२८) पाली तीर्थ :
पाली, जोधपुर शहर से ७२ किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में जिला मुख्यालय है। इसके प्राचीन नाम “पाल्लिका", "पल्लिका" और "पल्ली"९ थे। यह स्थान जैन एवं हिन्दू दोनों के लिये तीर्थ था । पल्लिवाल गच्छ को उत्पत्ति यहीं से हुई । इसी प्रकार जैन एवं ब्राह्मणों में पाई जाने वाली पल्लिवाल जाति की उत्पत्ति भी इसी स्थान से हुई ।
१. एइ, ११, क्र० २५। २. प्रोरिआसवेस, १९०९, पृ० ४४ । ३. वही। ४. वही, पृ० ४१ । ५. जैसासइ, पृ० ५०९ । ६. वही, पृ० ५३७ । ७. जैगुक, पृ० ३०३ । ८. नाजैलेस, क्र० ८०९, ८१३, ८१४, ८१५ । ९. जैसप्र, ३, पृ० ४३० ।
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