SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म पृष्ठों को प्रकाशित करने के सन्दर्भ में, इस क्षेत्र की समिति का महत्त्वपूर्ण योगदान है। सरस्वती भवन व शोध संस्थान के माध्यम से अप्रकाशित जैन ग्रन्थों के शोध व प्रकाशन का कार्य हो रहा है तथा यहाँ से विभिन्न शास्त्र भण्डारों की सूचियाँ भी प्रकाशित हुई हैं। यदि इस तीर्थ को "ज्ञान तीर्थ" की संज्ञा भी दी जाय, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। (२) चांदखेड़ी तीर्थ : श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र चाँदखेड़ी, झालावाड़ जिले में खानपुर कस्बे से तीन फलांग दूर, रूपली नदी के तट पर अवस्थित है। इस क्षेत्र का निर्माण औरंगजेब के शासनकाल में १६८९ ई० में हुआ था। इस सम्बन्ध में परम्परानुगत अनुश्रुति है कि खानपुर मवेशी मेले में किशनदास को स्वप्न हुआ कि खानपुर और शेरगढ़ के बीच ९ कि० मी० दूर, बारहपाटो के पाडाखोह के भूगर्भ में कई प्रतिमाएँ दबी पड़ी हैं। खुदाई करवाने पर वहाँ से आदिनाथ स्वामी, महावीर स्वामी आदि तीर्थंकरों की कई मूर्तियां निकलीं। संभवतः प्राचीनकाल में यहाँ कोई विशाल जैन मन्दिर रहा होगा । आदिनाथ प्रतिमा को उठाने के कई प्रयास विफल हुये। पुनः स्वप्न के आधार पर किशनदास सरकंडे की गाड़ी में मूर्ति को लाने लगे। उनका विचार मूर्ति को सांगोद ले जाकर स्थापित करने का था। स्वप्न के निर्देशानुसार उन्हें गाड़ी लाते समय पीछे भी नहीं देखना था, किन्तु रूपली नदी पर भ्रमवश पीछे देखने पर गाड़ी रुक गई व वहीं मन्दिर निर्मित करवाना पड़ा। निर्माण कार्य १६८५ ई० में प्रारम्भ हुआ और ४ वर्ष बाद १६८९ ई० में पूर्ण हुआ। इसी वर्ष विशाल समारोह के साथ, आमेर पीठ के भट्टारक जगतकीति के द्वारा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई गई। आदिनाथ की उक्त प्रतिमा के चमत्कारों एवं अतिशयों को ख्याति दूर-दूर तक है। प्रतिमा अत्यन्त कलापूर्ण, समचतुरस्त्र-संस्थानयुक्त, भव्य, प्रशान्त, लावण्ययुक्त एवं कला सौष्ठव से पूर्ण है। मन्दिर की संरचना मध्यकाल की मन्दिर योजना का उत्कृष्ट उदाहरण है । औरंगजेब के काल में यह मन्दिर आशंकाओं के मध्य पूर्ण हुआ होगा। इस समय औरंगजेब दक्षिण में युद्धों में व्यस्त था। कोटा नरेश भी उसकी सहायतार्थं दक्षिण में ही थे । मुसलमानों द्वारा विध्वंस की आशंका से मन्दिर की निर्माण योजना दुर्ग की तरह की गई है । शिखर भी छोटा है, जो बाहर से स्पष्ट नहीं देखा जा सकता है । परिसर के अन्दर सामान्य मन्दिर जैसा दृश्य है, किन्तु तल प्रकोष्ठ में अपूर्व मूर्ति-वैभव है। मुख्य प्रवेश द्वार में घुसने पर विशाल परिसर है, जिसमें संगमरमर का संवसरण मन्दिर अभी १. भादिजैती, पृ० ३१-३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy