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________________ बेन तीर्थ : २६३ में मूर्ति, सुरक्षा हेतु मिट्टी में दबा दी गई थी, या विध्वंस के परिणाम स्वरूप अवशेष रूप में दबी पड़ी रही। अतिशय क्षेत्र के प्रादुर्भाव का निश्चित समय ज्ञात नहीं है। राजकीय रेकॉर्ड के बनुसार १७१४ ई० में भी यह मन्दिर विद्यमान था।' १७८२ ई० में जयपुर के तत्कालीन नरेशों ने एक गाँव श्री जी को भेंट में दिया था। यह स्थान आमेर गद्दी के मूलसंघ आम्नाय के दिगम्बर जैन भट्टारकों का केन्द्र रहा, जिनका तत्कालीन बादशाहों व राजाओं पर भी अच्छा प्रभाव था। ___ अतिशय क्षेत्र एक विशाल कटले में स्थित है। उत्तर-मुखी सिंहद्वार पर एक नगाड़खाना है। परिसर की दीवार के साथ अन्दर की तरफ एक दुमंजिली धर्मशाला एवं मध्य के विशाल प्रांगण में मुख्य मन्दिर है। मन्दिर के मुख्य द्वार के समक्ष मान-स्तम्भ व तीन छत्रियां हैं। सीढ़ियों से ऊपर चढ़कर, संगमरमर की खुली छत तथा ठीक सामने मन्दिर का द्वार व चौक है । महामण्डप में प्रवेश करने के लिये ७ द्वार हैं, इनमें से पांच के ऊपर खड्गासन प्रतिमाएं हैं। सामने ही तीन दर की वेदी पर कत्थई वर्ण की महावीर मूर्ति ( मूल मूर्ति की अनुकृति ) तथा इसके अगल-बगल भूरे रंग की तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं। यहाँ से दो सीढ़ी चढ़कर गर्भगृह है, जिसके बाघ तोरण पर ६ इंच को पद्मासन प्रतिमा है। द्वार के दोनों पावों में दण्डधर व उनके ऊपर खड्गासन प्रतिमाएँ निर्मित हैं । गर्भगृह में तीन दर की वेदी पर पाषाण एवं धातु की अनेक प्रतिमाएं हैं। आगे तीन दर की मुख्य वेदी पर भूगर्भ से निकली हुई महावीर की मुंगावर्ण की अतिशय सम्पन्न प्रतिमा आसीन है । इस मूर्ति की शिल्प-योजना और रचना शैली गुप्तोत्तर काल की प्रतीत होती है । ३ मति ठोस ग्रेनाइट की न होकर रवेदार बलुए पाषाण की है, इसलिये काफी घिस भी चुकी है । मूर्ति पर कोई लेख नहीं है। वेदी के आसपास अन्य वेदियों पर शान्तिनाथ, कुंथुनाथ तथा अन्य कई छोटी-बड़ी धातु व पाषाण प्रतिमाएँ हैं। मन्दिर में चंवर धारी यक्षी, पद्मावती, क्षेत्रपाल आदि की भी प्रतिमाएँ हैं । भक्त जनता में क्षेत्रपाल की बहुत मान्यता है । प्रदक्षिणा में दीवार पर संगमरमर पर अत्यन्त कलात्मक १६ पौराणिक दृश्यों का अंकन है। मन्दिर के ऊपर तीन विशाल शिखर हैं, जो मन्दिर की अतिशयता व श्री वृद्धि करते प्रतीत होते हैं। कटले के पीछे टीले पर अब पगल्या स्थापित हैं तथा महावीर स्वामी की २५००वीं निर्वाण जयन्ती पर निर्मित ३३ फीट ऊंचा कीर्ति स्तम्भ है। राजस्थान में जैनधर्म की भूमिका को उजागर करने व जैन इतिहास में तिमिरावृत्त १. भादिजैती, ४, पृ० २३ । २. वही। ३. वही, पृ० २४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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