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४२६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म व्यापारियों एवं श्रेष्ठियों का योगदान
राजाओं एवं मंत्रियों की भाँति धनी श्रावकों ने भी इस कार्य में अत्यधिक रुचि प्रदर्शित की। हस्तलिखित ग्रन्थों के पुष्पिका लेख तथा 'कुमारपाल प्रबन्ध', 'वस्तुपाल चरित्र', 'प्रभावक चरित्र', 'सुकृत सागर महाकाव्य', उपदेश तरंगिणी', 'कर्मचंद्र मंत्री वंश प्रबंध' अनेक रासों एवं ऐतिहासिक चरित्रों से समृद्ध श्रावकों द्वारा लाखों रुपये के सद्व्यय से ज्ञान कोष लिखवाने तथा प्रचारित करने के विशुद्ध उल्लेख पाये जाते हैं।' 'वीर वंशावली' में यह उल्लेख मिलता है कि १३४९ ई० में एक जैन गृहस्थ संग्राम सोनी ने लाखों स्वर्ण मुद्राएँ व्यय करके 'कल्पसूत्र' और 'कालकाचार्य कथा' जैन मुनियों के लाभार्थ तैयार करवाई थीं । खरतरगच्छ के जिनभद्र सूरि के निर्देश पर धरणाशाह ने ताड़पत्रीय ग्रन्थों को कई प्रतियाँ जैसलमेर के शास्त्र भण्डार को भेंट करने हेतु लिखवाई थीं। रइधू ने कतिपय श्रावकों के आग्रह पर २० से अधिक अपभ्रंश रचनाएँ लिखी थीं। धरणाशाह, मंडन, धनराज, पेथड शाह, पर्वत कान्हा, थाहरू शाह एवं कर्मचन्द्र ने ज्ञान भण्डार स्थापित करने में अपनी लक्ष्मी का मुक्त हस्त से व्यय किया था । थाहरूशाह का भण्डार आज भी जैसलमेर में विद्यमान है।४ जैन समाज का योगदान
जैन समाज शास्त्रों को अत्यधिक सम्मान की दृष्टि से देखता है। ज्ञान का आदर, ज्ञानभक्ति आदि की विशद् उपादेयता नित्यप्रति के व्यवहार में परिलक्षित होती है। कल्पसूत्रादि आगमों को पर्युषण में गजारूढ़ शोभायात्रा निकाली जाती है तथा जागरणादि किये जाते हैं। भगवती सूत्रादि आगम पाठ के समय धूप-दीप तथा शोभायात्रा आदि जैनों के ज्ञान-सम्मान के ही प्रतीक हैं । ज्ञान-पूजा विविध रूप से की जाती है एवं ज्ञानद्रव्य के संरक्षण-संवर्धन का विशेष ध्यान रखा जाता है। ग्रन्थों की प्रतिलिपिकरण श्रुत सेवा का अंग माना जाता था। विशेष धार्मिक अवसरों यथा श्रुतपंचमी, ज्ञानपंचमी पर महत्वपूर्ण ग्रन्थों की प्रतिलिपियां पूर्ण कर आचार्यों एवं ज्ञान भण्डारों को समर्पित की जाती थीं। पुस्तकों को धरती पर न रखकर उच्चासन पर रखकर पढ़ा जाता है, जिसे सांपड़ा-साँपड़ी व रील भी कहते हैं। साधु, श्रावक के ज्ञानोपकरण के पैर, थूक आदि लगने पर प्रायश्चित का विधान है। इसलिये बैठने के आसन पर भी ग्रन्थों को नहीं रखा जाता । ग्रन्थों को वर्षा एवं धूप से बचाया जाता था तथा बन्द कमरों व तलघरों में हो रखा जाता था। इनको पत्थर की पेटियों में एवं ताड़पत्रीय ग्रन्थों को काष्ठफलकों
१. भंवरलाल नाहटा, राजैसा, पृ० ४१९, लेख-जैन लेखन कला । २. जैन चरित्र कल्पद्रुम, पृ० ५७ । ३. जैसलमेर भण्डार की ग्रन्थ सूची, पृ० ४, १५, २३, २४, ३१, ४१ एवं ४२ । ४. नाहटा, राजैसा, पृ० ४१९ ।
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