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जैनधर्म भेद और उपभेद : १३७ हुआ। १४५० ई० में इस गोत्र के साह वीसल ने सुमतिनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कक्क सूरि के द्वारा करवाई थी।' पूंगल क्षेत्र के कुछ ओसवाल अन्यत्र प्रवासित होकर बस गये और पंगल ही कहलाने लगे। मेड़तवाल गोत्र मेड़ता नगर के नाम पर अस्तित्व में आया । इस गोत्र के उल्लेख के १६वीं शताब्दी के लेख मेड़ता और उदयपुर में उपलब्ध हैं। कन्नौज से आने वाले ओसवाल कन्नौजिया गोत्र के हुये । १५०२ ई० में इस गोत्र के साखेड़ा ने अपने पिता की स्मृति में शीतलनाथ बिम्ब की प्रतिष्ठा करवाई। कांकरिया गोत्र कांकरावत के रहने वाले भीमसी के द्वारा उत्पन्न किया गया ।४ ये उदयपुर के महाराणा के सामन्त थे और खरतर गच्छ के जिन वल्लभ सूरि द्वारा जैन धर्म में दीक्षित हुए थे। अलवर से प्राप्त १४४२ ई० के एक लेख में इस गोत्र का उल्लेख मिलता है।" (ख) व्यावसायिक गोत्र :
कतिपय गोत्र व्यवसायों के आधार पर उत्पन्न हये । ११५५ ई० में जिन वल्लभ सूरि के प्रतिबोध से खींची राजपूत डोंडो, जिसका व्यवसाय धाड़ा मारना था, महाजन वंश में दीक्षित हुआ, जिससे धाड़ीवाल गोत्र स्थापित हुआ । रावचूड़ा ने अपना कोठार ठाकरसी को संभलाया, अतः ठाकरसी के वंशज कोठारी कहे जाने लगे। १४५६ ई० के अभिलेख के अनुसार इस गोत्र के मेघ ने वासुपूज्य बिम्ब विनयप्रभ सूरि के माध्यम से स्थापित किया। खजाने के प्रभारी खजान्चो गोत्र के हो गये । भण्डारियों के पूर्वज द्रदराव थे। ९९२ ई० में इन्होंने संडेरक गच्छ के यशोभद्र सूरि से जैनधर्म ग्रहण किया। भण्डार के अधिकारी होने के कारण इनके वंशज भण्डारी गोत्र के हुये । ११३२ ई० के नडलाई से प्राप्त इस गोत्र के प्रारम्भिक लेख में भण्डारी नानाशिव के किसी अनुदान की गवाही देने का उल्लेख है। ११८४ ई० के लेख में पल्लगाँव के मालिक भण्डारी यशोवीर का उल्लेख है।' ११८५ ई० के जालौर लेख के अनुसार महाराजा सामन्तसिंह के आदेश पर पासु के पुत्र भण्डारी यशोवीर ने जैन मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था।
१. नाजैलेस, ३, क्र० २३२५ । २. वही, क्र० ११३१, १२९५ । ३. वही, क्र० ११०१। ४. औजाइ, पृ० ३५३ । ५. नाजैलेस, क्र. ९८८ । ६. जैसंशि, पृ० ६२६ । ७. नाजैलेस, क्र० २०८४, जैसंशि, पृ० ६२५ । ८. समडिस्टिग्वश्ड जैन्स, पृ० ३६ । ९. वही।
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