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-४६ : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं
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- इसी गच्छ के विजयसेन सूरि ने "रेवंतगिरि रास" की रचना आबू में की । चन्द्रावती एवं आबू में ही १२२५ ई० में सोमेश्वर ने "कीर्तिकौमुदी" एवं "सुरतोत्सव", कोरटा में १३०६ ई० में प्रज्ञातिलक सूरि ने "कच्छुली रास ", चंद्रावती में १३वीं शताब्दी में उदयसूरि ने "पिडविशुद्धि विवरण", धर्मप्रवृत्ति" एवं "चंत्य वंदन दीपिका ", जिनप्रभ सूरि ने आबू में १२२१ ई० में "तीर्थकल्प", सोमसुन्दर सूरि के शिष्यों ने आबू में " गुरुगुणरत्नाकर काव्य", जीरावला में माणिक्यसुन्दर सूरि ने १४२१ ई० में “पृथ्वीचन्द्र चरित्र” की रचना, जीरावला में ही १४२८ ई० में पिप्पलगच्छ के हीरानन्द सूरि ने "विद्याविलास चरित्र पवाड़े" व आबू में " वस्तुपाल • तेजपाल रास", जीरावला में १४४६ ई० में तपागच्छीय पंडित सोमधर्मगणि ने " उपदेश सप्ततिका" तथा यहीं पर १४६७ ई० में " सोमसौभाग्य काव्य" की रचना हुई । ' (५) जैसलमेर क्षेत्र में जैनधर्म :
मध्यकाल में जैसलमेर में भाटी राजपूतों के शासनकाल में जैन धर्मं अत्यधिक उन्नतिशील हुआ । कई राजाओं ने धार्मिक समारोहों में सम्मिलित होकर धार्मिक गतिविधियों में अपनी रूचि प्रदर्शित की । यहाँ कई कलात्मक मन्दिरों के निर्माण हुये, संघ यात्राएँ आयोजित हुईं तथा असंख्य ग्रन्थ मौलिक रूप से लिखे गये या प्रतिलिपि किये गये । १३वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में जैसलमेर नगर भाटियों की राजधानी के रूप में अस्तित्व में आया । जैसलमेर भण्डार में संग्रहीत १२२८ ई० की कृति "धन्यशालिभद्र चरित्र" में इस नगर का नामोल्लेख है, जिससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि यह नगर निर्माण के तुरन्त बाद से ही जैन धर्म का केन्द्र रहा होगा । २ १२८३ ई० में जिन प्रबोध सूरि के जैसलमेर आगमन पर महाराजा कर्ण ने अपनी सेना के साथ उनका हार्दिक स्वागत किया था । महाराजा के आग्रह पर सूरिजी ने चातुर्मास वहीं व्यतीत किया । जैत्रसिंह प्रथम के राज्यकाल में जैनाचार्य जिनचन्द्रसूरि जैसलमेर आये थे, उस समय यहाँ अनेक धार्मिक आयोजन हुये थे । जैसलमेर में १४१६ ई० में राजा लक्ष्मण सिंह के शासनकाल में जिनेश्वर सूरि के उपदेशों से चिन्तामणि पार्श्वनाथ का मन्दिर निर्मित करवाया गया । लुद्रवा से लाई गई पार्श्वनाथ की प्रतिमा को इस मन्दिर में स्थापित किया गया और इस मन्दिर को "लक्ष्मण विलास" नाम दिया । यह नामकरण जैन धर्मावलम्बियों की राजा के प्रति कृतज्ञता तथा राजा के जैनधर्म के प्रति स्नेह का द्योतक है।
१. असावे, पृ० ४८-५१ ।
२. सोमाणी - राजस्थान के ऐतिहासिक शोध लेख, पृ० १४८ ।
३. खबृगु, पु० ५८ ।
४. नाजैलेस, ३, क्र० २११२ ।
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