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जैनधर्म भेद और उपभेद : ८९
चन्द्र संघ इत्यादि में विभाजित कर दिया। पश्चातवर्ती काल में कतिपय संघों में शिथिलाचार आने से उनकी गणना जैनाभासों में की जाने लगी। दिगम्बर परम्परा के अनुसार मूल संघ से ही अन्य सभी संघों की उत्पत्ति मानी गई है। अतः मूल संघ को भिन्न न मानकर सामान्य दिगम्बर संघ ही बताया गया है। बाद में कई नये संघ भी प्रकट हुये व दिगम्बर परम्परा में भी शाखाओं और कुलों का काफी विस्तार हुआ । "जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष" के अनुसार दिगम्बर परम्परा के शास्त्रीय उल्लेखों के आधार पर अनेक संघ गवेषणा हेतु स्वीकार किये गये हैं-अनन्त कीर्ति संघ, अपराजित संघ, काष्ठा संघ, गुणधर संघ, गुप्त संघ, गोपुच्छ संघ, गोप्य संघ, चन्द्र संघ, द्राविड़ संघ, नंदि संघ, नंदितट संघ, निष्पिच्छिक संघ, पंचस्तूप संघ, पुन्नाट संघ, बागड़ संघ, भद्र संघ, भिल्लक संघ, माघनंदि संघ, माथुर संघ, यापनीय संघ, लाडवागड़ संघ, वीर संघ और सेन संघ ।
राजस्थान में पूर्ववर्ती काल में आचार्यों के नाम संघों से सम्बद्ध नहीं किये जाते थे। जहाँ कहीं भी आचार्यों के संदर्भ हैं, वहाँ बिना किसी संघ और गण के उल्लेख के केवल उनका नाम वर्णित किया गया है । राजस्थान के विभिन्न स्थानों से प्राप्त अभिलेखों से पूर्व मध्यकाल की यह प्रवृत्ति स्पष्ट है। किशनगढ़ से डेढ़ मील दक्षिण में रूपनगर में ३ जैन स्मारक हैं । ९६१ ई० के स्तम्भ लेख में उल्लेख है कि यह मेघसेनाचार्य की निषेधिका है, जो उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके शिष्य विमलसेन ने निर्मित करवाई थी । दूसरे स्तम्भ लेख से पद्मसेनाचार्य के १०१९ ई० में दिवंगत होने और चित्रनन्दी द्वारा इस स्तम्भ को निर्मित करवाने का उल्लेख है। झालरापाटन में भी १००९ ई० का नेमिदेवाचार्य और बलदेवाचार्य का स्मारक है।४ अलवर राज्य में नौगावाँ के दिगम्बर जैन मन्दिर में अनन्तनाथ की खड्गासन प्रतिमा के अभिलेख से ज्ञात होता है कि यह १११८ ई० में विजयकीर्ति के शिष्य नरेन्द्रकीर्ति द्वारा स्थापित की गई थी।" इसी मन्दिर में शान्तिनाथ प्रतिमा के ११३८ ई० के लेख में वर्णित है कि पं० गुणचन्द्र ने आचार्य गुप्तनन्दो के लिये यह प्रतिमा बनवाई थी। इसी प्रकार जयपुर से ३ मील दूर, पुराना घाट के बालाजी के मन्दिर के निकट, मूल रूप से जैन मन्दिर प्रतीत होने वाले, किन्तु वर्तमान में शिव मन्दिर के दरवाजे के ऊपरी हिस्से में उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होता है कि यह ११६० ई० का है और इसमें आचार्य वेज्रक व उनके शिष्य १. धवला, भाग १, प्रकरण १४ । २. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, २, पृ० ६१४ । ३. प्रोरिआसवेस, १९१०-११, पृ० ४३ । ४. एरिराम्यूअ, १९१२-१३ । ५. वही, १९१९-२०, क्र० ३ । ६. वही, १९१९-२०, क्र० ४ ।
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