________________
८८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
२०. पिशपालाचार्य गच्छ-इसी नाम के आचार्य से इस गच्छ की उत्पत्ति हुई। सिरोही राज्य से प्राप्त ११५१ ई० के प्रतिमा लेख में इस गच्छ का उल्लेख मिलता
२१. आम्रदेवाचार्य गच्छ-निवृत्ति कुल के आम्रदेवाचार्य से सम्बन्धित यह गच्छ सिरोही के अजारी और लोटाणा में ११वीं शताब्दी में प्रचलन में था ।
२२. भरतरिपुरा गच्छ-मेवाड़ के भटेवर स्थान से यह गच्छ १०वीं शताब्दी में राजा अल्लट के पिता भरतरिभट्ट के द्वारा उत्पन्न किया गया ।
२३. जलयोधर गच्छ-यह गच्छ जोरोद्र नामक गाँव से उत्पन्न हुआ। सिरोही राज्य के अजारी तीर्थ से प्राप्त ११५६ ई० के प्रतिमालेख में इस गच्छ का नाम है।
२४. वातपीय गच्छ-जैसलमेर क्षेत्र में खोजे गये ११०५ ई० के अभिलेख में इस गच्छ का नामोल्लेख है।
२५. आरासणा गच्छ-थारापद्र गच्छ के आचार्य यशोदेव सरि (११२७ ई०) से आरासणा गच्छ का प्रारम्भ किया गया प्रतीत होता है। आरासणा स्थान का आधुनिक नाम कुंभेरिया है । इस गच्छ के आचार्य देवचन्द्र सूरि ने दिलवाड़ा, विमल वसहि मंदिर की बहुत-सी मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई थी।
२६. कासहृद गच्छ—यह विद्याधर गच्छ का उपगच्छ है और सिरोही राज्य के कासिन्द्रा गाँव से उत्पन्न हुआ। इस गाँव के जैन मन्दिर से प्राप्त १०३४ ई० के अभिलेख में इसका उल्लेख है। (ख) दिगंबर सम्प्रदाय में भेद-प्रभेद (ख-१) प्रवर्तमान संघ :
दिगम्बर परम्परा में अनेक संघों, गणों एवं शाखाओं के उत्पन्न होने का उल्लेख मिलता है । परम्परानुसार, आचार्य अर्हबलि तक मूल संघ अविच्छिन्न रूप से चलता रहा । ६६ ई० में अर्हद्बलि ने मूल संघ को कई संघों, जैसे नंदी संघ, वीर संघ, अपराजित संघ, पंचसूप संघ, सेन संघ, भद्रसंघ, गुणधर संघ, गुप्त संघ, सिंह संघ,
१. अप्रजैलेस, जैइरा, पृ० ६२ ।। २. अप्रजलेस, क्र० ३९६, ४७०, ४७१, ४७२, ४७३ । ३. वही, क्र० ४०८। ४. जैइरा, पृ० ६८। ५. असाव, पृ० २२५ । ६. अप्रजलेस, असावं, पृ० २२६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org