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३४४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
से पूर्व तक, राजस्थान में रचित जैन संस्कृत साहित्य के किसी ग्रन्थ का उल्लेख नहीं मिलता । ८वीं शताब्दी के पश्चात् प्रचुर मात्रा में जैनाचार्यों द्वारा संस्कृत ग्रन्थ लिखे गये ।'
१. आचार्य हरिभद्र - हरिभद्र ८वीं शताब्दी के चित्तौड़ के राजपुरोहित, समर्थ विद्वान्, महान् सिद्धांतकार, दार्शनिक, विचारक, महाकवि एवं सर्वश्रेष्ठ टीकाकार थे । इनका प्राकृत एवं संस्कृत पर समान अधिकार था । इनके संस्कृत में " षड्दर्शन समुच्चय", “अष्टक प्रकरण”, “अनेकांतजयपताका", " योगदृष्टि समुच्चय ", " योगबिन्दु "3 आदि प्रमुख ग्रन्थ हैं । जैन संस्कृत साहित्य के इतिहास में हरिभद्र प्रथम लेखक हैं, जिन्होंने जैनागमों एवं पूर्वाचार्यों की प्रसिद्ध कृतियों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखने का सूत्रपात किया । " अनुयोगद्वारसूत्र टीका", "आवश्यकनिर्युक्ति टीका", "जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र टीका", "तत्त्वार्थसूत्र टीका", "दशवेकालिकसूत्र टीका", "नंदीसूत्र टीका", "पिंडनिर्युक्ति टीका", "न्यायावतार टोका", दिङ्नागकृत " न्यायप्रवेश टीका " आदि प्रसिद्ध टीका ग्रन्थ हैं । " मुनिपति चरित्र", "यशोधर चरित्र" एवं " नेमीनाथ चरिउ" भी इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं ।" खगोलीय रचनाओं में " लग्नशुद्धि" बहुत महत्वपूर्ण है ।
२. जयसिंह सूरि इन्होंने ८५६ ई० में नागौर में " धर्मोपदेशमाला वृत्ति" की रचना की ।
३. सिद्धषि सूरि - हरिभद्र की परम्परा को दसवीं farai आचार्य सिद्धर्षि ने आगे बढ़ाया। ये निवृत्ति कुल के आगम, न्याय, दर्शन और सिद्धांतों के मूर्धन्य विद्वान् थे । कथा” (९०५ ई०) ७, " सकलतीर्थ स्तवन"", धर्मदास गणि की " उपदेशमाला" पर टीका, रचनाएँ प्राप्त हैं ।"
१. जैसिभा, पृ० ६, २, १६, १ ।
२. श्री विरास्मा, पृ० ८४४ ।
३. जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर द्वारा प्रकाशित ।
४. पाटन के ग्रन्थों की सूची, पृ० २९३ ॥
५. जैसास, पृ० १६२ । ६. वही ।
७. जैसासइ, पृ० १८५ ।
८. गाओस, ७६, पृ० १५६ ।
९. जैसासइ, पृ० १८६ । १०. वही ।
शताब्दी के श्रीमाल नगर दुर्गस्वामी के शिष्य थे । ये इनको " उपमितिभव प्रपंच " श्रीचंद्रकेवली चरित" (९१७ ई०) ९, सिद्धसेन के "न्यायावतार" पर वृत्ति आदि
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