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जैन साहित्य एवं साहित्यकार: ३४५
४. जिनेश्वर सूरि - ( ९९३ - १०५३ ई० ) –- १०वीं ११वीं शताब्दी से राजस्थान मैं खरतरगच्छीय आचार्यों का प्राधान्य शुरू हो जाता है । ये मध्यप्रदेश निवासी कृष्ण · ब्राह्मण के पुत्र थे । धारानगरी में इनकी दीक्षा हुई थी । ये खरतरगच्छ के प्रथम संस्थापक आचार्य थे । इनका कार्यक्षेत्र गुजरात एवं राजस्थान रहा । इन्होंने " प्रमालक्ष्म स्वोपज्ञ टीका" १०२३ ई० में जालौर में, "अष्टक प्रकरण टीका" १०२३ ई० में जालौर में, "कथाकोष प्रकरण स्वोपज्ञ टीका" १०५१ ई० में डीडवाना में, " चैत्यवंदनक" १०२३ ई० में जालौर में रचीं। इनकी "वीरचरित्र" नामक एक अन्य रचना भी प्राप्त होती है । '
५. रामसेन - ये काष्ठा संघ के नंदीतटगच्छ विद्या गण के आचार्य थे । सोमकीर्ति रचित "गुर्वावली" में इन्हें नरसिंहपुरा जाति का संस्थापक माना गया है । वागड़ प्रदेश से इनका अधिक सम्बन्ध था । विद्वानों ने इनका समय १०वीं शताब्दी स्वीकार किया है । इनकी एकमात्र संस्कृत कृति " तत्त्वानुशासन" ज्ञात हुई है । २
६. आचार्य महासेन ये लाड़बागड़ संघ के आचार्य जयसेन के प्रशिष्य थे । इस संघ का राजस्थान से विशेष सम्बन्ध रहा । ये परमारवंशीय राजा मुंज द्वारा पूजित थे, अतः इनका समय १०वीं शताब्दी होना चाहिये । इनकी एकमात्र कृति "प्रद्युम्न चरित्र" महाकाव्य उपलब्ध है | 3
७. कवि डड्ढा - ये चित्तौड़ निवासी एवं पोरवाड़ जाति के थे। इनकी एकमात्र संस्कृत कृति "पंचसंग्रह" है जो प्राकृत "पंच संग्रह " की गाथाओं का अनुवाद है । विद्वानों ने इनका समय ९९८ ई० माना है ।
८. बुद्धिसागर सूरि - जिनेश्वर सूरि के लघु भ्राता थे। इनकी प्रमुख रचना “पंचग्रंथी व्याकरण", अपरनाम "बुद्धिसागर व्याकरण" है ।" इसकी रचना जालौर में १०२३ ई० में की गई थी । १०८३ ई० में वर्द्धमान सूरि रचित "मनोरमा चरित्र" 'प्रशस्ति के अनुसार बुद्धिसागर सूरि ने छंद शास्त्र, निघण्टु ( कोष), काव्य, नाटक, कथा प्रबन्ध आदि अनेक विषयों पर ग्रन्थों की रचना की थी, किन्तु वे सब अप्राप्त हैं ।
९. जिनबल्लभ सूरि (१०३३ ई०-१११० ई० ) - इनका कार्यक्षेत्र राजस्थान गुजरात और पंजाब था । ये आगम, सिद्धांत, साहित्य शास्त्र और ज्योतिष के प्रकांड विद्वान् थे । इनकी प्रमुख संस्कृत रचनाएँ - " धर्मशिक्षा प्रकरण", संघपट्टक", "शृंगार शतक","
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१. जैसास, पृ० २०८ ।
२. राजैसा, ९७ ।
३. वही ।
४. जैसलमेर भण्डार की ग्रन्थ सूची, पृ० २० ।
५. जैसासइ, पृ० २३१-२३२ ।
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