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जैन धर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : १७
वागड़ के परमार, जैसलमेर के भाटी, पूर्वी राजस्थान के शूरसेन, नागवंश, तंवर वंश, गौड़ वंश आदि थे। धर्म के सम्बन्ध में, इस समय के शासकों को "धर्म प्रतिपाल", "धर्म परायण" आदि कहा गया है । पूर्व मध्यकाल में, राजस्थान में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदाय लोकप्रिय थे । बयाना से प्राप्त १०४३ ई० के एक अभिलेख में, श्वेताम्बर आचार्य माहेश्वर सूरि का उल्लेख है। चित्तौड़ से प्राप्त ११५० ई० के एक अभिलेख में, दिगम्बर सम्प्रदाय के जयकीर्ति के शिष्य रामकीति का उल्लेख है। इस काल में अनेक अन्य गच्छों की स्थापना हुई और कई नगर जैन धर्म के केन्द्र बने । चातुर्मास में सभाओं एवं गोष्ठियों के आयोजन से धार्मिक वातावरण की संरचना हुई। जैनाचार्य हरिभद्र सूरि के प्रयासों से, चित्तौड़ जैन धर्म का मुख्य केन्द्र बन गया था। इन्होंने "अनेकांत जयपताका", "धर्मबिन्दु" आदि ग्रन्थों की रचना कर, जैन सिद्धान्तों को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया। इसके बाद उद्योतन सूरि, सिद्धर्षि आदि जैनाचार्यों ने भी जैन मत का बहुविध प्रचार किया। १. प्रतिहारों के अन्तर्गत जैन धर्म :
७वीं शताब्दी से ही पश्चिमी राजस्थान में प्रतिहारों के शक्ति सम्पन्न हो जाने और धर्म, कला, साहित्य के प्रति इनकी अत्यधिक उदारता के कारण, जैन धर्म की बहुविध प्रगति हुई। जालौर, उज्जैन व कन्नौज से सम्बन्धित प्रतिहारों की शाखा में, नागभट्ट प्रथम का जैन साधु यक्षदेव से प्रगाढ़ सम्बन्ध था। इस वंश के चौथे प्रतिहार शासक वत्सराज के समय में ओसिया का महावीर स्वामी मंदिर अस्तित्व में था । ९५६ ई० के ओसिया के लेख में, वत्सराज के पुर में वैश्य समाज का होना वणित है। इसके समय में, ७७८ ई० में जालौर में "कुवलयमाला" तथा ७८३ ई० में आचार्य जिनसेन ने "हरिवंश पुराण" की रचना की, जो उस समय की धार्मिक, राजनीतिक व सामाजिक स्थिति पर अच्छा प्रकाश डालते हैं । ७९४ ई० में वत्सराज की मृत्यु के उपरान्त नागभट्ट द्वितीय शासक हुआ, जिसका जन प्रसिद्ध नाम "आम" था। चन्द्रप्रभसूरि रचित "प्रभावक चरित्र" के अनुसार, आम या नागवलोक एक ही शासक था, जिसने वैश्य की पुत्री से विवाह किया था, जिसके वंशजों में से ही एक
१. इए, १४, पृ० ८-१० । २. एइ, २, पृ० ४२१-४२४ । ३. राथ ए, पृ० ४२० । ४. आसइएरि, १९०८-०९, पृ० १०८ । ५. नाजैलेस, भाग १, क्र० ७८८ । ६. राथू ए, पृ० १२४-१३४ ।
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