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२७४ : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं
साई शतक बृहद वृत्ति" के अनुसार पार्श्वनाथ के नवकणों की प्रथा जिनदत्त सूरि से ही प्रचलित हुई थी । नरभट में नवफणा पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा इन्होंने ही की थी । यह जिनालय आगे चलकर महातीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुआ ।
मुनि जिनविजय द्वारा प्रकाशित जिनदत्त सूरि के सचित्र काष्ठ फलक के ३ ब्लॉक " भारतीय विद्या निबंध संग्रह " में प्रकाशित हुए हैं, जिनमें से दो का विवरण इस प्रकार है । पहली पट्टिका में बाँयें और दाहिने भाग में चित्रित दृश्यों के दो खण्ड हैं । इन दोनों खण्डों में जिनदत्त सूरि की व्याख्यान सभा का आलेखन है । इसके ऊपर वाले चित्रखण्ड में, मध्य में जिनदत्त सूरि बैठे हुए हैं और उनके सम्मुख पं० जिनरक्षित बैठे हैं । जिनरक्षित के पीछे दो श्रावक हैं एवं जिनदत्त सूरि के पीछे एक श्रावक एवं दो श्राविकाए बैठी हैं । नीचे वाली दूसरी पट्टिका के चित्रखंड में मध्य में जिनदत्त सूरि और उनके सामने गुण समुद्राचार्य, उनके पीछे एक मुनि और एक श्रावक बैठा है । सूरिजी के पृष्ठ भाग में दो श्रावक बैठे हैं । सूरि जी के सामने स्थापनाचार्य हैं जिस पर " महावीर " लिखा हुआ है । यह सचित्र फलक संभवतः जिनदत्त सूरि के निजी संग्रह की किसी ताड़पत्रीय पुस्तक का है । सम्भव है इसमें आलेखित पुरुष व स्त्री इस ग्रन्थ के भेंटकर्ता श्रावक परिवार के हों। 3 मारवाड़ के निर्मित जिनालय सूरि जी ने महावीर की प्रतिमा की पट्टिका में इसी प्रसंग का आलेखन हो । कदाचित् इसी देवधर ने ग्रन्थ को लिखवाकर सूरि जी को भेंट किया हो । ये फलक १२वीं शताब्दी के हैं ।
विक्रमपुर के प्रतिष्ठा की
श्रेष्ठी देवघर द्वारा थी । सम्भव है इस पट्टिका के साथ वाले
१२वीं शताब्दी के ही एक प्राचीन फलक के मध्य में जैन प्रतिमा सहित मंदिर है, मूर्ति के दोनों और परिचारक खड़े हैं । दाहिनी ओर दो उपासक करबद्ध खड़ े हैं । दो व्यक्ति दुंदुभि वादन में व्यस्त हैं और दो नर्तकियों नृत्य कर रही हैं। ऊपर आकाश में एक किन्नरी उड़ रही है । बाँयें प्रकोष्ठ में तीन उपासक हाथ जोड़े खड़े हैं और एक किन्नर आकाश में उड़ रहा है । इस मध्यवर्ती चित्र के दोनों ओर व्याख्यान सभा हो रही है । एक में जिनदत्त सूरि व उनके सम्मुख जिनरक्षित बैठे हैं । अन्य उपासक, उपासिका भी हैं । मुनि के सम्मुख स्थापनाचार्य पर " महावीर" लिखा है । दाहिनी ओर की व्याख्यान सभा में जिनदत्त, गुणचन्द्राचार्य से विचार-विमर्श कर रहे हैं । दोनों के बीच में भी स्थापनाचार्य बना है । मुनि जिनविजय के अनुसार यह फलक जिनदत्त सूरि के जीवनकाल का है ।"
१. जिनचन्द्र स्मृग, पृ० ५६ ।
२. वही, पृ० ५३ ॥
३. वही ।
४. वही ।
५. हीरालाल जैन, भा० सं० में जैन धर्म का योगदान, पृ० ३७२ ।
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