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________________ जेन कला : २७५ ने एक अन्य काष्ठ पट्ट ११२४ ई० की इस ऐतिहासिक घटना से सम्बन्धित है जिसमें सिद्धराज जयसिंह के राजदरबार में देव सूरि शास्त्रार्थ में कुमुदचन्द्र को हराया था । सम्भवतः यह फलक शास्त्रार्थं के ४-५ वर्षों में ही तैयार हो गया होगा और उसका निर्माण काल ११३० ई० के लगभग रहा होगा । १ फलक के अग्रभाग पर आशापल्ली मन्दिर के व्याख्यान भवन में, देवसूरि एक पीठ वाले आसन पर बैठे हैं । इनके पीछे एक शिष्य और सामने स्थापनाचार्य रखा है । सम्भवतः वे अपने शिष्य माणिक्य को कुछ समझा रहे हैं । फर्श पर ४ सामान्य व्यक्ति, जो वस्तुतः कुमुदचन्द्र के भेदिये हैं, बैठे हैं । ये दिगम्बर मत के प्रतीत होते हैं । अगले हिस्से में पीठ फलक के सहारे कुमुदचन्द्र बैठे हैं, उनके हाथ में पिच्छी, आगे व पीछे एक-एक शिष्य हैं । अगले खंड में देव सूरि के साथ दो शिष्य व दो श्रावक हैं तथा सन्देशवाहक उन्हें शास्त्रार्थं की चुनौती दे रहा है । अगले खण्ड में जमीन पर सामान्य जनों के साथ बैठे हुये कुमुदचंद्र तथा दुर्व्यवहार से पीड़ित वृद्धा साध्वी बताई गई है । अगले खण्ड में यही वृद्धा साध्वी देव सूरि से अपने साथ हुये दुर्व्यवहार की शिकायत कर रही है । इसके बाद कुमुदचंद्र संदेशवाहक का सन्देश सुनते हुये तथा अन्तिम खण्ड में एक औरत व्यापारी को घी बेचते हुये चित्रित है । फलक के पीछे दोनों आचार्य शिष्य मंडली के साथ पाटन की तरफ जाते हुये दिखाये गये हैं । देव सूरि के दृश्य में श्वेताम्बरियों द्वारा अच्छे शकुन व बायें हिस्से में कुमुदचन्द्र व उनके दल के साथ कोबरा आदि अपशकुन चित्रित हैं । इसके बाद कुमुदचन्द्र पाटन 'पहुँचने पर राजमाता से मिलना चाहते हैं, किन्तु रक्षक द्वारा रोक लिये जाते हैं । यह काष्ठफलक, बहुत रुचिकर है, क्योंकि इसमें पहली बार " पश्चिम भारतीय "शैली" के विलक्षण लक्षण दृष्टिगत होते हैं । इसमें सुन्दर रेखांकन व कोणीय प्रयोग है | तीखी नाक व नुकीली ठोड़ी बहुत स्पष्ट है । सँकरी छाती व आँखों का चित्रण परम्परा से कुछ हटकर दिखता है । २ ( ख - ५) सचित्र विज्ञप्ति पत्र : ८वीं से १६वीं शताब्दी तक के सचित्र विज्ञप्ति या अभी तक देखने को नहीं मिले हैं। चूँकि विज्ञप्ति पत्र आचार्यों को अपने नगर में चातुर्मास व्यतीत करने के लिये भेजे जाने वाले निमंत्रण पत्र होते थे, अतः राजस्थान में ही इनकी उपलब्धि बहुत कम दृष्टिगत होती है । अचित्रित विज्ञप्ति पत्र मध्यकाल के उपलब्ध होते हैं । (२) मध्यकाल (क) भित्ति चित्र : १२वीं से १६वीं शताब्दी के मध्य के भित्ति चित्र भी अस्तित्व में नहीं रह पाये । १. भारतीय विद्या, ३, पृ० २३६ । २. जैन मिनिएचर पेंटिंग्स, पृ० ६१-६२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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