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जैनधर्मं भेद और उपभेद : १६१
रहने से अधिकाधिक मन्दिरों व मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई तथा विपुल साहित्य सृजित हुआ । इससे मध्यकाल में जैनधर्म समृद्ध बना रहा । अपने-अपने मत को सत्य व धर्म के आदर्शों का रक्षक बताने के संघर्ष में, पार्थिव प्रतिमानों में अत्यधिक संख्या वृद्धि हुई ।
१२. जैनधर्म के भेदोपभेदों से जैन मान्यताओं या मुनि आचार में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ, किन्तु दिगम्बर- श्वेताम्बर आचार पर गम्भीर प्रभाव पड़ा । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में मुनियों द्वारा न केवल वस्त्र ग्रहण की मात्रा बढ़ी, अपितु तीर्थंकरों की मूर्तियों में भी कौपीन का चिह्न प्रदर्शित किया जाने लगा तथा मूर्तियों का आँख, अंगी, मुकुट द्वारा अलंकरण भी प्रारम्भ हो गया । ये प्रवृत्तियाँ ८वीं शताब्दी के पूर्व नहीं थीं ।
१३. चैत्यवासी प्रथा प्रारम्भ में शास्त्रों के पठन-पाठन व साहित्य सृजन की सुविधा के लिए प्रारम्भ हुई प्रतीत होती है, किन्तु धीरे-धीरे यह साधु वर्ग की स्थायी जीवन प्रणाली बनने से परिग्रह मूलक और आचरण शैथिल्य का कारण बन गई ।
१४. चैत्यवासी प्रथा का एक बड़ा लाभ यह हुआ कि इन गादियों और मठों में विशाल शास्त्र भण्डार स्थापित हो गये और ये विद्याभ्यास के सुदृढ़ केन्द्र बन गये । ९ वी व १०वीं शताब्दी के पश्चात् इन्हीं स्थानों पर विपुल साहित्य विरचित हुआ । इसी उपयोगिता के कारण भट्टारक गादियाँ कई नगरों में स्थापित हुईं व अनेकों मंदिरों में शास्त्र भण्डार स्थापित हुये ।
१५. १५वीं शताब्दी के पश्चात् उत्पन्न पंथ जैनधर्म में क्रांतिकारी सिद्ध हुए, क्योंकि वर्तमान में अधिकांश जैन मतावलम्बी इन्हीं के अन्तर्गत विभक्त दिखाई देते हैं ।
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