________________
अध्याय चतुर्थ जैन तीर्थ
मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्मानुयायियों में आत्मशुद्धि, आत्म कल्याण एवं पूज्य तीर्थंकरों की वंदनार्थ तीर्थ** यात्रा की मान्यता विशेष लोकप्रिय थी । तीर्थ शब्द से उन सबका व्यवहार होता है, जो पार करने में साधक हैं। कुछ प्राचीन जैनाचार्यों ने तीर्थ के स्थान पर "क्षेत्रमंगल" शब्द का प्रयोग किया है ।२ "तीर्थ" शब्द "तीर्थ क्षेत्र" या "क्षेत्रमंगल' के अर्थ में बहुप्रचलित एवं रूढ़ है। सम्पूर्ण तीर्थ क्षेत्रों को संरचना में भक्तों की पूज्य पुरुषों के प्रति कृतज्ञता की भावना ही मूल कारण है । जैन समाज में ३ प्रकार के तीर्थ क्षेत्रों की मान्यता का प्रचलन है
** तीर्थ शब्द "तृ" धातु से निष्पन्न हुआ है। "तृ" धातु के साय “थक्' प्रत्यय
लगाने से तीर्थ शब्द की निष्पत्ति होती है । “तीयन्ते अनेन आस्मिन् वा" । अर्थात् जिसके आधार से तरा जाय । जैन शास्त्रों में तीर्थ शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया गया है, यथा :
संसाराब्धेरपारस्य तरणे तीर्थमिष्यते । चेष्टितं जिननाथानां तस्योक्तिस्तीर्थसंकथा ।
-जिनसेनकृत आदिपुराण ४१८ अर्थात् जो इस अपार संसार-समुद्र से पार करे, उसे तीर्थ कहते हैं । ऐसा तीर्थजिनेन्द्र भगवान् का चरित्र ही हो सकता है। अतः उसके कथन करने को तीर्थआख्यान कहते हैं । 'बृहत्स्वयंभू-स्तोत्र" में मल्लिनाथ की स्तुति करते हुये आचार्य समन्तभद्र ने उनके तीर्थ को जन्म-मरण रूप समुद्र में डूबते हुए प्राणियों के लिए प्रमुख तरणपथ बताया है । पुष्पदंत भूतबलि प्रणीत “षट्खंडागम" (भाग ८, पृ० ९१) में तीर्थकर-को धर्मतीर्थ कर्ता बताया है । “आदिपुराण" में श्रेयांसकुमार को दान तीर्थ का कर्ता बताया है। "आदिपुराण' में (२/३९) मोक्ष प्राप्ति के उपायभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र को तीर्थ बताया है । "आवश्यक-नियुक्ति" में चातुर्वर्ण अर्थात् मुनि, साध्वियों, श्रावक, श्राविका, इस चतुर्विध संघ को तीर्थ
माना है। १. भादिजैती, ४, पृ० १० । २. षट्खंडागम, प्रथम खंड, पृ० २८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org