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________________ .१६० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म जहाजों से व्यापार करने वाले बोथरा, रंकू नामक बकरी के बालों के कम्बलों के व्यापारी रांका व जरी के व्यापारी पटना हुये । ५. गोत्रों के अतिरिक्त सभी जातियों में, दस्सा व बीसा या लघुशाखा एवं बृहत्त शाखा, छोटे साजन व बड़े साजन, बड़ा साथ व लोढ़ा साथ नामक प्रभेद भी दृष्टिगत होते हैं। जाति से पृथक् अपेक्षाकृत नीची जाति की स्त्री से विवाह करने पर उनकी संतति “दस्सा" (आधे जैन) तथा शुद्ध समूह स्वयं को बीसा या बड़ा मानने लगा । शूद्र जातियों की स्त्रियों से विवाहोपरान्त उत्पन्न संतति पांचा (चौथाई जैन) भी कहलाती थी। ६. अभिलेखीय प्रमाणों से सिद्ध होता है कि नये गोत्रों की उत्पत्ति के साथ ही कालक्रमेण कतिपय गोत्र लुप्त भी हो गये, जैसे-ओसवाल जाति में धोर, चाँद, बिकाडिया, भरतरा, गुंडालिया, भूरा आदि । अन्य जातियों में भी यही स्थिति रही । ७. अभिलेखीय प्रमाणों से यह भी सिद्ध होता है कि कतिपय गोत्रों के व्यक्ति अधिक अर्थ सम्पन्न एवं धर्मनिष्ठ थे। सुराणा, कांकरिया, तातेड़, वरडिया, नाहर, बाफना, रांका, चंडालिया, नवलखा, डांगी, नाहटा, संचेती, कटारिया, पामेचा, लोढ़ा, चोपड़ा, बछावत, भण्डारी, कोठारी, बोथरा, सेठिया, मुहनोत, सिंघवी आदि के उल्लेख के अधिक अभिलेख उपलब्ध होते हैं। ८. पूर्ववर्ती काल में माहेश्वरी जाति के कुछ गोत्र जैनों से सम्बद्ध थे, जिन्होंने पाश्चात्वर्ती काल में पुनः शैव मत ग्रहण कर लिया । खरतर गच्छ पट्टावली के अनुसार जिनदत्त सूरि ने बीकमपुर में कई महेश्वरी परिवारों को जैन मत में दीक्षा दी थी। मंडोवरा, देवपुरा, मंत्री, खाटोद, न्याती आदि गोत्र वाले पहले जैन ही थे, क्योंकि कई प्रतिमालेखों में इनका उल्लेख मिलता है। ९. जैन मत में जातियों का उदय राजकीय प्रश्रय में हुआ। अधिकांश उदाहरणों में राजा ने जैन मत स्वीकार किया, तदनन्तर प्रजा ने भी जैन मत में दीक्षित होकर विभिन्न गोत्रों का निर्माण किया। १०. भण्डारी, कोठारी आदि गोत्र विभिन्न जातियों में पाये जाते हैं । इससे स्पष्ट है कि व्यवसाय व कार्य गोत्र निर्माण का प्रमुख आधार था। आवास, प्रवास के कारण भी पूगल से आने वाले पूंगलिया, मेड़ता के मेड़तिया आदि कहलाये । कतिपय क्षत्रिय जातियों ने धर्मान्तरण के बावजूद मूल गोत्र बनाये रखा, जैसे-सोनिगरा, सिसोदिया, हyडिया श्रावक आदि । ११. जैनमत में जातियों की उत्पत्ति का श्रेय जैनाचार्यों द्वारा दिये गये प्रतिबोध को है। चतुर्विध संघ में भेद-प्रभेद व फूट के कारण लघु समूहों में आपसी प्रतिस्पर्धा १. खरतर गच्छ पट्टावली, पृ० २४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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