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जैनधर्म भेद और उपभेद : १५९
परिवार के आबू में आने का उल्लेख है।' बीकानेर के १७०३ ई० के सामीदास के समाधि लेख में उसके श्वेताम्बर जैन पंथ के खरतर गच्छ के मतानुयायी होने का उल्लेख है। 'निष्कर्ष एवं समालोचना :
१. जैन मत में प्रचलित अधिकांश महत्त्वपूर्ण जातियों की उत्पत्ति राजस्थान में पूर्व। मध्यकाल में हुई।
२. जातियों के नामकरण का आधार सामान्यतः उत्पत्ति स्थान रहा ।
३. जातियों की उत्पत्ति के साथ ही गोत्र भी उत्पन्न हुए। प्रारम्भ से इनकी संख्या बहुत कम थी, किन्तु धीरे-धोरे स्थान, व्यक्तियों व व्यवसायों के आधार पर इनकी संख्या वृद्धि होती गई।
४. मूलतः विभिन्न क्षत्रिय वंशों से जैन जातियाँ उत्पन्न हुई, किन्तु बहुसंख्य गोत्रों को देखने पर आभास होता है कि अन्य जातियाँ भी जैन मत में दीक्षित हुई होंगी। सम्भवतः मुसलमानों के अत्याचारों से त्रस्त होकर बहुत सी जातियों ने हथियार बाँधन छोड़कर, वाणिज्य एवं व्यवसाय को अपनाया । गुणार्थी ने अपनी पुस्तक में लिखा है। कि “मीन पुराण" भूमिका के लेखक मुनि मगन सागर के अनुसार मुसलमानों और अन्य राजपूतों के अत्याचारों के कारण तंग आकर कई मीणे मुसलमान हो गये और कई ओसवाल समाज में परिवर्तित हो गये, जो "बड़गोत्या" ओसवाल के नाम से प्रसिद्ध हैं । "जाति भास्कर', 'जाति अन्वेषण" व "शुद्धि चन्द्रोदय'' में लिखा है कि ओसवाल समाज में कई गोत्र उनकी असलियत के प्रमाण हैं जैसे-चोरडिया (चोरी, डाका डालने वाले), सोनी (सुनार), बिरहट (बारेठ व दमामी), छाजिया (सूप बनाने वाले), तेलिया (तेली), चंडालिया (भंगी) और कूकरा (कुत्ते पालने वाले) थे ।
इसी प्रकार कतिपय गोत्रों के बारे में कई नई उत्पत्ति विषयक व्याख्याएँ भी उप-लब्ध होती हैं । कृषि से सम्बन्धित जातियाँ व गोत्र खेतपालिया, धान्य को कोठार में संचित करने वाले कोठारी व न्याती, अन्य भण्डारों के स्वामी भण्डशाली, संचेती व कोठारी कहलाते थे। इसी प्रकार वस्त्र का व्यापार करने वाले 'दोषी", कपास के "कपासी", गोंद के व्यापारी "कुम्मट", स्वर्ण के व्यापारी सोनी व हिरण, सोने के कावडिया, फदिया व गधैया सिक्कों के व्यापारी क्रमशः कावड़िया, फिरोदिया व गदैया, सभी सिक्कों के व्यापारी नानावटी, घी के घिया, नमक के लूणिया, हींग के हींगड़,
१. अजैलेस, क्र० १७६ । २. बीजलेस, क्र० १९७३, १९७४ । ३. गुणार्थी, पृ० ५९ । ४. जैसरा, पृ० ३५२-३५३ ।
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