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१५८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
मंडलेचा, मंडोरेचा, बहुरा, मादडेचा, माल्हू, मांडुत्र, मुसल, मूंधा, मुंडलेह, मोहणेचा, रेखाणी, रोटागण, रोहरीया, रोहिणेय, राव्ही, लंडिका, लाभू, लालण, लिगा, लूसड़, लेतिया, लोलस, वच्छश, वडालंबिया, वणवट, वढाला, बलटउण, विणेलिया, वरलव, वहकटा, विनायकीया, वीचूहस, वीरेचा, स्वयम्भ, साउल, साउलेचा, सामकठ, साली, साहिडवाख, साहूला, साहू साख, सांड, सांपुडा, सीखनो, सिंघड़, सिंघाड़िया, सींधुड, सीतोरेचा, सरूआ, सेथाल, सोढ़वाल, सोन, सोपरा, हंगड आदि । (ख) दिगम्बर जैन जातियों के गोत्र :
उत्रेश्वर, कासिन, काकडेश्वर, गंगाधा, गिरिलव, दानीपत, नंदकेरतर, परवेसई, बुध, कोठेचा, कासिल, संपडिया, सावड़ आदि । जैनोपजीवी जातियाँ : (क) भोजक या सेवग : ___ भोजक या माग ब्राह्मण, जैनियों द्वारा मान्यता प्राप्त महत्त्वपूर्ण जाति थी और इस जाति के ही पुजारी मुख्यतः नियुक्त किये जाते थे। ११७९ ई० के ओसिया अभिलेख में मन्दिर में नियुक्त किये गये भोजक जाति के लोगों का उल्लेख है।' इस जाति के लोग लम्बी संघ यात्राओं में भी जैनों के साथ जाते थे। इस तथ्य की पुष्टि आबू के १५६० ई० के लेख से भी होती है। मारवाड़ से प्राप्त कई ताम्रपत्रों में भोजकों को दिये गये अनुदानों के उल्लेख मिलते हैं । जिसमें लोटाणा से महाराजा अजित सिंह का १६९६ ई० का लोटाणा का ही १७०४ ई० का और महाराजा जसवन्त सिंह का १६९२ ई० का ताम्रलेख विशेष महत्त्वपूर्ण है। भोजक जाति के लोग ओसवाल जैनियों से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित थे और विवाहादि अवसरों पर उनके लिये पौरोहित्य कर्म करते थे। (ख) महात्मा या मथण : __ यह जाति भी जैनियों से अत्यधिक घनिष्ठ रही। इस जाति की उत्पत्ति का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है । मथेण जाति के लोग कुशल लेखक होते थे व जैन ग्रन्थ भंडारों के अधिकांश ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ व कलाकृतियाँ इन्हीं के द्वारा रची हुई प्राप्त होती हैं । बीकानेर के चिंतामणि पार्श्वनाथ मन्दिर के १६२७ ई० और १७२१ ई० के लेखों में मथेण जाति के व्यक्तियों के नामोल्लेख है । १४२६ ई० के आबू के लेख में मथेण
१. नाजैलेस, १, क्र० ८९४ । २. जैरा, पृ० ६२। ३. बीजैलेस, क्र. २४, २५ ।
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