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३४० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म इन्होंने "मुद्रित कुमुदचन्द्र" नामक नाटक लिखा, जिसमें कुछ प्राकृत भाषी पात्र भी हैं।
३०. मुनि नेमिचन्द्र :-नेमिचन्द्र नाम के अनेक आचार्य हुए हैं । कुछ वर्षों से यह स्पष्ट हो गया है कि "लघुद्रव्य संग्रह" और "वृहद्रव्य संग्रह' के रचयिता मुनि नेमिचंद्र और “गोम्मट सार", "त्रिलोकसार", "लब्धिसार" आदि के लेखक आचार्य नेमिचन्द्र पृथक-पृथक् हैं । मुनि नेमिचन्द्र, जिन्हें सिद्धान्तिदेव भी कहा गया है, की साधना स्थली आश्रमपट्टन रहा है, जिसे दशरथ शर्मा ने बून्दी जिले का केशोराय पाटन नगर होना बताया है। इन्होंने १२वीं शताब्दी में यहीं पर "लघुद्रव्य संग्रह' व 'वृहद्रव्य संग्रह" की रचना की थी। प्राकृत शिलालेख :
राजस्थान में प्राकृत भाषा का प्रचार साहित्य व धर्म प्रभावना तक हो सीमित न होकर अभिलेख अंकन तक भी व्यापक था। प्राचीनतम प्राकृत अभिलेख के रूप में बरली ( अजमेर से ३५ मील दूर ) में प्राप्त पाषाण-खण्ड पर उत्कीर्ण कुछ पंक्तियाँ हैं, जिनमें वीर निर्वाण संवत् ८४ अंकित है। जोधपुर से २० मील उत्तर की ओर घटियाला नामक गांव में कक्कुक का एक शिलालेख ८६१ ई० का प्राकृत में ही उत्कीर्ण मिलता है। (२) अपभ्रंश साहित्य एवं साहित्यकार:
अपभ्रंश भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश की भाषा थी। राजशेखर के अनुसार अपभ्रंश के क्षेत्रों में राजपूताना भी सम्मिलित था। १०वीं शताब्दी में यह इस प्रदेश की बोलचाल की भाषा थी । आधुनिक भारत की आर्य भाषाओं को उत्पति अपभ्रंश से ही मानी जाती है । अपभ्रंश का साहित्य में प्रवेश ६ठीं शताब्दी से ही हो गया था। १०वीं से १३वीं शताब्दी तक अपभ्रंश साहित्य का स्वर्णकाल माना जाता है । सामान्यतः १२वीं शताब्दी तक "अपभ्रंशयुग" माना जाता है तथापि १५वीं व १६वीं शताब्दी तक भी इसमें रचनाएँ सृजित की जाती रहीं। अपभ्रंश की अधिकांश रचनाओं का सम्बन्ध राजस्थान से है । राजस्थान से पूर्व मध्यकालीन अपभ्रंश भाषा साहित्य के रचनाकार एवं रचनाएं निम्नलिखित हैं
१. हरिषेण :-धरंकटवंशीय हरिषेण का जन्म राजस्थान के चित्तौड़ नगर में
२. जैसरा, २२७॥ ३. राथुए। ४. राजैसा, पृ० ५०। ५. शास्त्री, हा० सा० आ० इ०, पृ० २५५-५७ ।
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