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६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
लेख जैन अभिलेखों में बहुत कम देखने को मिलते हैं। १०वीं से १७वीं शताब्दी के मध्य के नैनवां व बीकानेर से ऐसे कुछ लेख प्राप्त हैं।'
(छ) अभिलेखों में प्रयुक्त सन्, संवत् : राजस्थान के अधिकांश जैन अभिलेखों में "विक्रम संवत्" का प्रयोग हुआ है । जैसलमेर से १४वीं शताब्दी के पूर्व प्राप्त लेखों में "भट्रिक संवत्"२, तदनन्तर भट्टिक व विक्रम संवत् दोनों का तथा कुछ समय पश्चात् के लेखों में केवल विक्रम संवत् का प्रयोग देखने को मिलता है। चित्तौड़ से प्राप्त परमार नरवर्मा कालीन अभिलेख के अलावा "शक संवत्' का प्रयोग सामान्यतः जैन अभिलेखों में नहीं मिलता। गुजरात में लोकप्रिय रहे "सिंह संवत्' का भी कहीं-कहीं प्रयोग देखने को मिलता है। "सिंह संवत्" ३१ का नाडलाई अभिलेख प्रसिद्ध है । जैन परम्परानुसार “वीर निर्वाण संवत्" का प्रयोग भी कई लेखों में देखने को मिलता है । __जैन अभिलेखों की खोज, सम्पादन, प्रकाशन एवं संग्रह की दृष्टि से पूर्णचन्द्र नाहर, मुनि जिनविजय, मुनि जयन्त विजय, अगरचन्द नाहटा, दौलतसिंह लोढ़ा, महोपाध्याय विनयसागर, के० सी० जैन, रामबल्लभ सोमाणी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । इस प्रकार जैन अभिलेख पर्याप्त मात्रा में प्रकाश में लाये जा चुके हैं और निरन्तर लाये जा रहे हैं। (२) मंदिर, मूर्तियां एवं स्मारक :
मध्ययुगीन जैन मन्दिर, मूर्तियाँ एवं स्मारक तत्कालीन धर्म, सभ्यता एवं संस्कृति के दर्पण है। विभिन्न प्रकार के भवन, प्रासाद, सभा मण्डप, आवासीय गृह, चैत्य, आदि अपने मूल रूप में या भग्नावशेष रूप में अपने पिछले इतिहास को प्रकाशित करते हैं । अपने साधारण स्वरूप में तो ये कलात्मकता ही दर्शाते हैं, किन्तु विशेष अध्ययन के उपरान्त तत्कालीन धार्मिक अवस्था का भी परिचय देते हैं । जैनपूजा-पद्धति और धार्मिक विश्वासों को जानने में ये बहुत सहायक हैं। मन्दिर और उनमें उत्कीर्ण अनेक मूर्तियां तत्कालीन सभ्यता, संस्कृति, धार्मिक विश्वास और कला के गौरव का सम्यक चित्रण करती हैं। इसी प्रकार कई नगरों के भग्नावशेष काल विशेष के वास्तु, नगर-निर्माण तथा शिल्प-शैलियों के साक्षी हैं। प्राचीन इमारतों की प्राचीरों, भित्तियों, पाषाणपट्टियों एवं मकानों के खंडहरों से, सामाजिक स्थिति का अच्छा बोध होता है । मन्दिर एवं मूर्तियां, वास्तुकला एवं मूर्तिकला का परिज्ञान ही नहीं कराते, वरन् अपने विकास की कहानी भी कहते हैं। इनसे जन-जीवन की झलक के साथ-साथ समाज की विचार१. वरदा, जि० १४, सं० ४, पृ० ११-१४ । २. इण्डियन हिस्ट्री क्वाटरली, सितम्बर, १९५९, पृ० २२७-२३८ । ३. सोमाणी, आर० वी०-वीरभूमि चित्तौड़, पृ० २१९-२२० । ४. प्राजेलेस, भाग २, क्र० ३२४ ।
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