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________________ साधन स्रोत : ७ धारा का भी प्रतिनिधित्व होता है । ये स्मारक जैन देवालयों की समृद्धि, जैन समाज आर्थिक सम्पन्नता एवं उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा के भी सूचक हैं | ( ब ) साहित्य : मध्यकालीन जैन साहित्य न केवल जैन धर्म के अवबोधन के लिये, अपितु राजस्थान के तिमिराच्छन्न अतीत को आलोक पथ पर लाने के लिये भी अति मूल्यवान है । भारतीय साहित्य - परम्परा के निर्माण में जैन मुनियों एवं रचनाकारों का योगदान निरन्तर एवं अक्षुण्ण रहा है । संस्कृत से लेकर प्राकृत, अपभ्रंश तथा अन्यान्य देश्यभाषाओं तक जैनों की सृजन सलिला का प्रवाह कभी नहीं सूखा । जैन साहित्य जितना प्रचुर है, उतना ही प्राचीन भी; जितना परिमार्जित है, उतना ही विषय वैविध्यपूर्ण भी; और जितना प्रौढ़ है, उतना ही विविध शैली सम्पन्न भी। जैन साधक सदैव देशकाल एवं तज्जन्य परिस्थितियों के प्रति जागरूक रहे हैं । उनकी ऐतिहासिक बुद्धि कभी सुषुप्त नहीं रही; और यही कारण है कि धार्मिक एवं सम्प्रदाय मूलक साहित्य सृजन करते हुये भी वे देशकाल से सम्बन्धित अपनी रचनाओं में सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक तथ्य दे गये हैं, जिनका यदि वैज्ञानिक पद्धति से अध्ययन किया जाय तो भारतीय इतिहास के कई तिमिराच्छन्न पक्ष आलोकित हो उठे । विविधतीर्थ - कल्प, प्रभावक चरित्र, प्रबन्ध कोश, कथाएँ, विज्ञप्ति पत्र, प्राचीन तीर्थं मालाएं, तीर्थ स्तवन, गच्छों एवं संघों की पट्टावलियों, प्रशस्ति संग्रह, प्रतिष्ठा लेख आदि ऐसी उपलब्धियाँ हैं, जो मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म की सुदृढ़ एवं समृद्ध परम्परा की द्योतक हैं । साथ ही इनसे तत्कालीन भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक धारणाओं का प्रामाणिक विवेचन भी प्राप्त होता है । (१) साहित्यिक ग्रन्थ : परिपूर्ण है, जो जैन धर्म के ", " आचारांग सूत्र" और । राजस्थान में रचित जैन प्रारम्भिक जैन साहित्य पूर्णरूपेण धर्म एवं दर्शन से सिद्धान्तों की आधारभूमि निर्मित करता है । " कल्पसूत्र " उत्तराध्ययन सूत्र " जैन मत के आदिकाल के परिचायक हैं साहित्यिक कृतियाँ इनके उत्तरवर्ती काल को हैं । ये कृतियाँ राजस्थान में जैन धर्म की स्थिति पर अच्छा प्रकाश डालती हैं । बारां ( कोटा जिला ) में १०वीं शताब्दी में पद्मनन्दी रचित "जम्बूद्वीपपण्णत्ति", ७७९ ई० में जालौर में उद्योतनसूरि रचित " कुवलयमाला”, १३७० ई० में जयानन्द रचित "प्रवासगीति काव्य", १४८६ ई० में सोमचरित गणी रचित " गुरुगुण रत्नाकर काव्य" और १८वीं शताब्दी में मेघविजय रचित " दिग्विजय महाकाव्य" विशेष महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कृतियाँ हैं ।" १. जैइरा, पृ० ४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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