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८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (२) ऐतिहासिक कृतियाँ :
मध्यकालीन राजस्थान के विभिन्न राजवंशों के उत्थान, पतन एवं अस्तित्व को निश्चित निष्कर्षों तक पहुँचाने में भी जैन ऐतिहासिक कृतियां महत्वपूर्ण हैं । हेमचन्द्र सूरि रचित "द्वयाश्रय" एवं "त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र" चालुक्य कालीन जैन धर्म के इतिहास के लिये उपयोगी हैं । १३०४ ई० में प्रभाचंद सूरि रचित "प्रभावक चरित्र" एवं अज्ञात आचार्य द्वारा संकलित “पुरातन प्रबन्ध संग्रह" में कई जैन शासकों एवं मुनियों से सम्बन्धित धारणाओं का रोचक वर्णन है। १५वीं शताब्दी में जिनहर्ष रचित "वस्तुपाल चरित्र" और १५११ ई० में लावण्य समय रचित "विमल चरित्र" इस काल के जैन सन्तों के इतिहास सम्बन्धी जानकारी के लिये विश्वसनीय स्रोत्र हैं । ८५२ ई० में देवसेन रचित "दर्शनसार," दिगम्बर सम्प्रदाय में संघों की उत्पत्ति पर प्रकाश डालता है। १३३६ ई० में लिखा गया "उपकेशचरित्र" जैन इतिहास के अनुशीलन के लिये उपयोगी है। १२४८ ई० में जिनपति उपाध्याय रचित "युगप्रधानाचार्य गुर्वावली" जैन सन्तों के जीवन सम्बन्धी तथ्यों के लिये विश्वसनीय स्रोत है। १७वीं शताब्दी में जयसोम रचित "करमचन्द्र वंशोत्कीर्तन काव्यम्" करमचन्द्र के जीवन सम्बन्धी विश्वसनीय सूचनाओं की खान है; तथा बीकानेर राज्य में जैन धर्म के अस्तित्व एवं प्रभाव पर काफी प्रकाश डालता है । १३४९ ई० में रचित राजशेखर के "प्रबन्ध कोश' में कई जैन साधु, कवि, राजा और अन्य व्यक्तियों का जीवन वृत्त है। इसके अतिरिक्त, हरिभद्र सूरि की "समराइच्चकहा" तथा हरिषेण का "बृहत्कथाकोष" आदि ऐसे प्रबन्ध हैं, जिनसे तत्कालीन धार्मिक, राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। पूर्व-मध्यकालीन राजस्थान के इतिहास को समृद्ध बनाने के लिये भी इन प्रबन्धों का उपयोग अत्यन्त वांछनीय है। (३) प्रशस्तियाँ :
इनकी महत्ता एवं उपयोगिता अभिलेखों के सदृश है । मध्यकाल में ८वीं एवं ९वीं शताब्दी से ही प्रशस्तियां लिखी जाने लगी थीं। उनमें से जो सुरक्षित रह पाई हैं, वे जैन इतिहास के पुननिर्माण में अत्यधिक महत्वपूर्ण स्रोत सिद्ध हुई हैं। जैन साहित्येतिहास निर्माण के सन्दर्भ में भी इनका योगदान है। १२वीं एवं १३वीं शताब्दी से इनका निर्माण सामान्य रीति से होने के कारण ये हमें मूल्यवान जानकारी से लाभान्वित कराती हैं। इनमें ग्रन्थ की निर्माण तिथि, तत्कालीन शासक का नाम, दानदाता व दानग्रहीता का नाम, उनके संघ, गण, गच्छ, गुरुओं के नाम, दानदाता की जाति, गोत्र, वंशावली आदि का उल्लेख होने से महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त होते हैं। पाण्डु१. चौधरी, जी० सी०-पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ इंडिया, पृ० ३-४ । २. वही, पृ० ३-४ ।
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