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________________ ४१८: मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्भ विभिन्न लोक शैलियों को अपनाया, जिनके प्रयोग से भारत का पुरातन संगीत सुरक्षित रह सका। (१४) हिन्दी साहित्य की आध्यात्मिक चेतना को बनाये रखने में, जैन साहित्य की दार्शनिक संवेदना की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारतीय साहित्य की विभिन्न धाराओं और प्रवृत्तियों को इससे पुष्टि मिली है । (१५) जैनाचार्यों ने लोक जीवन के सन्निकट होने के कारण, समकालीन घटनाओं, लोक धारणाओं और जनचेतनाओं को यथार्थ एवं मुखर अभिव्यक्ति देने में सफलता प्राप्त की है । यह सामाजिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। (१६) यायावर व सत्यनिष्ठ जैनाचार्यों ने घटनाओं के सही-सही विवरण अंकित किये हैं। विभिन्न वर्गों से निकटता होने के कारण, जन-जीवन के चितन को भी स्पष्ट रूप से अंकित किया है, अतः जैन साहित्य में इतिहास लेखन की प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। (१७) जैन साहित्य समाज का दर्पण है। इसमें विभिन्न कालावधियों के विविध आचार-व्यवहार, सिद्धांत, संस्कार, रीति-नीति, वाणिज्य, व्यवसाय, धर्म-कर्म, शिल्प, कला, पर्व-उत्सव, तौर-तरीके, नियम, कानून आदि यथावत प्रतिबिंबित हैं । (१८) राजस्थानी जैन साहित्य ने जीवन की पवित्रता, नैतिकता और उत्कृष्ट जीवन आदर्शों को, लोक कल्याण हेतु व्याख्यायित किया है। इस साहित्य का रूप समष्टिमूलक लोक संग्राहक एवं लोकमंगलकारी है । इसका विश्वास संघर्ष में नहीं, अपितु मंगल में है, अतः नायक का अन्त दुःखद मृत्यु में नहीं होता, अपितु उसे आध्यात्मिक वैभव से सम्पन्न, अनन्त बल, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त सौन्दर्य का धारक बताया जाता है। जैन साहित्य के मूल में, समानता, स्वतन्त्रता, सार्वजनीनता, सांस्कृतिक समन्वय, भावनात्मक एकता और आदर्शवादिता होने के कारण, यह व्यक्ति और समाज के लिये अच्छा मार्गदर्शक और पथ-प्रणेता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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