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जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ४१७ का रंग भरा। इन्होंने प्रबन्ध एवं मुक्तक के बीच, काव्य रूपों के कई नये स्तर निर्मित किये, साथ ही प्रचलित काव्य रूपों को नयी भावभूमि और मौलिक अर्थवत्ता भी दी।
(९) पद्य के सौ से भी अधिक काव्य रूप देखने को मिलते हैं। चरित काव्य के प्रमुख काव्य रूप-रास, चौपाई, ढाल, पवाडा, संघि, चर्चरी, प्रबन्ध, चरित, सम्बन्ध, आख्यानक, कथा आदि हैं। उत्सव काव्य के प्रमुख काव्य रूप-फागु, धमाल, बारहमासा, विवाहलो, धवल, मंगल आदि है। नीति काव्य के मुख्य काव्य रूप-संवाद, कक्का, मातृका, बावनी, छत्तीसी, कुलक, हीयाली आदि हैं । स्तुति काव्य के मुख्य काव्य रूप-स्तुति स्तवन, स्तोत्र, सज्झाय, विनती, नमस्कार, चौबीसी, पूजा आदि हैं।
(१०) गद्य साहित्य भी स्थूल रूप से दो प्रकार का है-मौलिक एवं टीका, अनुवाद आदि । मौलिक सूजन धार्मिक, ऐतिहासिक, कलात्मक आदि रूपों में मिलता है। धार्मिक गद्य में सामान्यतः कथात्मक एवं तात्विक गद्य के ही दर्शन होते हैं। ऐतिहासिक गद्य गुर्वावली, वंशावली, उत्पत्ति ग्रन्थ, दफ्तर, बही, टिप्पण आदि रूपों में लिखा गया । कलात्मक गद्य वचनिका, दवावैत, बात, सिलोका, वर्णक, संस्मरण आदि रूपों में लिखा गया। अनुप्रासात्मक झंकारमयी शैली और अंतर्तुकात्मकता इस गद्य की अपनी विशेषता है । आगमों में निहित तत्त्व और दर्शन को, जनोपयोगी बनाने की दृष्टि से, प्रारम्भ में नियुक्तियां और भाष्य लिखे गये, जो पद्य में थे। बाद में इन्हीं पर गद्य में चूणियाँ लिखी गईं। नियुक्ति, भाष्य और चूणि साहित्य, प्राकृत अथवा प्राकृत-संस्कृत मिश्रित रूप में ही मिलता है । इसके पश्चात् टीका युग आता है, जो आगमों पर ही नहीं, अपितु नियुक्तियों और भाष्यों पर भी लिखी गईं। ये टीकाएँ प्रारम्भ में संस्कृत में और बाद में राजस्थानी व हिन्दी में मिलती हैं। इनके दो रूप-टब्बा व बालावबोध विशेष प्रचलित है । गद्य और पद्य के ये विभिन्न रूप जैन साहित्य की विशिष्ट देन हैं।
(११) कागज पर लिखे ग्रन्थ त्रिपाठ, पंचपाठ, टब्बा, बालावबोध, दो विभागी, सूड़लेखन, चित्रपुस्तक, स्वर्णाक्षरी, रौप्याक्षरी, सूक्ष्माक्षरी, स्थूलाक्षरी, मिश्रिताक्षरी, पौथियाकार, गुटकाकार आदि अनेक रूपों के प्राप्त होते हैं।
(१२) जैन साहित्य का मूल स्वर शांतरसात्मक है, किन्तु इसमें शृंगार एवं भक्ति रस का भी अभाव नहीं है। वीर रस की ओजस्विता के साथ ही, हृदय को विगलित करने वाला करुण रस भी विद्यमान है । कथा साहित्य के विभिन्न प्रकरणों में हास्य रस एवं व्यंगोक्तियों की छटा भी बिखरी हुई है।
(१३) जैन साहित्यकारों ने साहित्य को कलाबाजी का विषय न समझ कर, हृदय को प्रभावित करने वाली आनन्दमयी कला के रूप में देखा । अतः शास्त्रीय छन्दों के अतिरिक्त लोक रुचि को ध्यान में रखकर कई नये छन्द भी निर्मित किये। ये छन्द प्रधानतः गेय रहे हैं। संगीत को शास्त्रीयता से मुक्त करने के लिये इन कवियों ने
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