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४१६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म भाषा की रचनाओं में देखने को मिलता है । हिन्दी का स्वरूप तो इस काल में विकसित भी नहीं हुआ था।
(३) १३वीं से १६वीं शताब्दी के मध्य साहित्य सृजन में प्राकृत की लोकप्रियता में कमी व अपभ्रंश की लोकप्रियता में कुछ वृद्धि की गति देखने को मिलती है, किन्तु संस्कृत भाषा जैन विद्वानों में यथावत्, साहित्य व पांडित्य प्रदर्शन की भाषा बनी रही, जिसका प्रमाण विपुल मात्रा में विभिन्न साहित्यकारों द्वारा सृजित जैन साहित्य है। राजस्थानी भाषा का स्वरूप विकसित हो चुकने के कारण इसमें सभी प्रकार का गद्य व पद्य साहित्य रचा गया। मुगल काल में हिन्दी शब्द अस्तित्व में आया और धीरे-धीरे खड़ी बोली का प्रभाव साहित्य पर दिखाई देने लगा।
(४) उत्तर मध्यकाल में प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाएँ जैन साहित्य सृजन की परिधि के लगभग बाहर हो गई, किन्तु संस्कृत को लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई। खड़ी बोली का विकास हो जाने से राजस्थानी भाषा के साथ-साथ हिन्दी में साहित्य सृजन की प्रवृत्ति तीव्रतर हुई । १७वीं व १८वीं शताब्दी में विपुल मात्रा में हिन्दी भाषा में गद्यपद्य साहित्य सृजित हुआ।
(५) राजस्थानी जैन साहित्य की विशालता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यहां के जैन शास्त्र भण्डारों में लगभग ३ लाख हस्तलिखित पांडुलिपियाँ, ताड़पत्रों एवं कागजों पर निबद्ध, सुरक्षित हैं ।
(६) तटस्थ वृत्ति और उदार दृष्टिकोण के कारण जीवन के नानाविध पक्षों को स्पर्श करनेवाला जैन साहित्य, केवल भावना के स्तर पर ही निर्मित नहीं हुआ है । ज्ञान, चेतना के स्तर पर धर्मेतर विषयों से संबद्ध रचनाएँ भी विपुल परिमाण में है। आगम साहित्य के अतिरिक्त, आगमेतर साहित्य में प्रबंध, व्याकरण, ज्योतिष, वैद्यक, मंत्र-तंत्र, इतिहास, भूगोल, दर्शन, न्याय, राजनीति, आदि वांगमय के विभिन्न अंगों पर अधिकारपूर्वक साहित्य रचा गया ।
(७) अपने प्रवचनों को रोचक व सरस बनाये रखने के लिए, जैनाचार्य निरन्तर कथा काव्य एवं चरित काव्य सृजित करते रहे । श्रावकों में स्वाध्याय व अध्ययन के क्रम को अनवरत बनाये रखने के लिये, नये-नये ग्रन्थों की रचनाएँ होती रही तथा प्राचीन शास्त्रीय ग्रन्थों पर टीकाएँ, व्याख्याएं, भाष्य, वचनिकाएँ, नियुक्तियां चणियाँ आदि लिखी जाती रहीं। विभिन्न, पर्व, तिथियों, धार्मिक उत्सवों, जयन्तियों आदि पर भी, सामयिक साहित्य रचा जाता रहा । प्रेरणास्पद एवं ऐतिहासिक चरित्रों पर भी, संवेदना के धरातल पर जीवनी परक साहित्य रचा जाता रहा ।
(८) काव्य रूपों के सन्दर्भ में जैन कवि बड़े उदार रहे । उन्होंने प्रचलित शास्त्रीय रूपों को स्वीकार करते हुए भी, लोकभाषा के काव्य रूपों में व्यापकता और सहजता
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